स्त्री - समानता - सुरक्षा - सम्मान
हमारी यह सृष्टि द्विसंयोगिक है। एक पक्ष का प्रतिपक्ष भी होता है। दिन है तो रात भी है, जीव है तो अजीव का भी अस्तित्व है, मिलन हुआ है तो वियोग होगा ही। इसी सृष्टि में निर्माण एवं संचालन हेतु नर व मादा की संरचना हुई (मनुष्य-पशु-पक्षी सभी जीव योनियों में)। मनुष्यों को छोड़ कर शेष जीव सृष्टि में नर एवं मादा का सामाजिक जीवन प्राकृतिक रूप से, बंधे हुए नियमों से चलता है। मानवीय सभ्यता का जैसे-जैसे विकास हुआ, स्त्री-पुरुष की भूमिकाएं बदलती रही, स्थितियों में परिवर्तन हुए एवं धीरे-धीरे असमानता वाले समाज का निर्माण हो गया।
हजारों वर्ष पूर्व, मानवीय सभ्यता के आरंभिक अवस्था में, मनुष्य भोजन एवं अन्य आवश्यकता हेतु शिकार व वनो पर निर्भर था, हर रोज शिकार करना, हिंसक पशुओं से अपने आप को बचाना आदि दुष्कर कार्य पुरुषों के अधिक उपयुक्त थे, स्त्री की जैविक जवाबदारियां थी, छोटे शिशु या बच्चो के साथ जंगल जाना अत्यधिक जोखमी था। अतः स्त्री को सुरक्षित रखा जाता था। उस परिस्थिति में काम का आदर्श बंटवारा था।
सिंधु - सरस्वती सभ्यता, उसके बाद के वैदिक काल,सोलह जनपद काल, मौर्य साम्राज्य- गुप्त साम्राज्य एवं ईसा की १० शताब्दी तक कमोबेश स्त्री - पुरुष के रिश्तों में समानता थी, एक दूसरे के कार्य को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। नारी के मातृत्व के कारण उसे सुरक्षा प्रदान करना पुरुषों का कर्तव्य था। उस समय के साहित्य एवं यात्रा वृत्तांत में हमें अनेकों अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।
जैसे जैसे मानवीय समूहों में जमीन-धन व श्रेष्ठता को लेकर हिंसा आरंभ हुई, युद्ध हेतु सेना व शस्त्रों का महत्व बढ़ने लगा, शारीरिक बल अधिक महत्वपर्ण हो गया, यही से संबंधों में असमानता का बीजा रोपण हुआ।
ईसा की १० शताब्दी के बाद भारत के उत्तर पश्चिम सीमा से तुर्क एवं अन्य विदेशी आक्रमणकारियों ने आधिपत्य स्थापित करना प्रारंभ किया, धार्मिक रूप से रूढ़ियों व अंधविश्वास को प्रश्रय मिला, युद्ध व हिंसा दिन -प्रतिदिन की बात हो गई, इसी बिंदु से भारतीय समाज ने अपनी चमक खोनी शरू कर दी। इसी काल खंड धीरे - धीरे स्त्रियां दोयम दर्जे की मान ली गई तथा स्त्रियों ने भी इसे अपनी नियति मान ली। इन सबके परिणाम स्वरूप बाल विवाह, सती प्रथा, देवदासी प्रथा, स्त्री अशिक्षा, धर्म के आधार पर स्त्रियों को हीन बताना आदि शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर स्त्रियों की पीड़ित किया जाने लगा।
अंग्रेजो ने भारत का आर्थिक शोषण तो किया लेकिन कुछ अच्छे सामाजिक परिवर्तन भी किए जैसे सती प्रथा पर रोक, बाल विवाह पर पाबंदी, आधुनिक शिक्षा का प्रसार, स्त्री-पुरुषों पर कानून का समान शासन। ये सभी कार्य ऐसे थे जिससे भारतीय समाज ने करवट बदलनी आरंभ कि।
१९४७ एवं उसके पश्चात धीरे-धीरे सामाजिक व आर्थिक जीवन में स्त्रियों की भूमिका बढ़ने लगी। पारिवारिक मूल्यों में परिवर्तन हुए है, कानून का संरक्षण भी स्त्रियों को प्राप्त है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से पुरुषों के दृष्टिकोण में
थोड़ा लचीलापन आया है। इन सबके फलस्वरूप समाज ने समानता की और कदम बढ़ाए है लेकिन सुरक्षा व सम्मान के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना बाकी हैं।
एक सबसे महत्वपूर्ण बात जो स्त्री-पुरुष दोनों को समझनी चाहिए वो ये कि "दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं"। समरस जीवन के लिए प्रत्येक पुरुष में कुछ स्त्रेन गुण व प्रत्येक स्त्री में कुछ पुरुषों चित गुण होने चाहिए। करुणा एवं संवेनशीलता स्त्रियों के स्वाभाविक गुण हैं, साहस व अविचलन पुरषों के स्वाभाविक गुण हैं।
समानता का अर्थ समान अवसर - समान सुरक्षा एवं समान इज्जत। समानता एकरूपता में फर्क है, आज स्त्रियां पुरुषों जैसा बनने का प्रयास कर रही है, एकरूप होने की पुरजोर कोशिश हो रही हैं, इस होड़ का मूल्य स्त्री-पुरुष दोनों को चुकाना होगा। आज हमने इतने पुरुषवादी समाज का निर्माण कर दिया है जो स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही सुखदायक नहीं हैं। समाज व राष्ट्र के लिए तो कतई नहीं।
समानता - सम्मान - सुरक्षा इन यक्ष
प्रश्नों का उत्तर निम्न बिंदुओं में देने का प्रयास किया है,
१. आज अर्थ का पक्ष सभी सामाजिक पक्षों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया है। अतः आवश्यक है कि स्त्री इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर बने। पिता-पति के व्यवसाय में भी अपनी क्षमता का योगदान दे सकती। आर्थिक रूप से स्त्रियों की आवाज सुनी जाने से न केवल उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा वरन् पारिवारिक समरसता में भी वृद्धि होगी।
२. परिवार बच्चों के संस्कारों की पहली शाला होती है। हम देखना होगा की एक ही परिवार में पल-बढ़ रहे पुत्र-पुत्री को समानता पूर्वक पाला पोसा जाए। दोनों को एक ही तरह से प्यार, ममता, पढ़ाई के अवसर दिए जाए। यही उम्र होती है जब बच्चा इन फर्को को समझना शुरू करता है, यदि इन्हीं प्रारंभिक अवस्था में उन्हें असमानता पूर्ण व्यवहार दिखाई देगा तो वो उनके व्यक्तित्व का अंग बन जाएगा।
३.परिवार का निर्माण एवं संस्कारों का सिंचन स्त्री-पुरुष दोनों का ही समान दायित्व है, लेकिन व्यवहार जगत में पुरुष इससे छिटकने की कोशिश करते हैं, वे वस्तुत: स्त्री के इस अति आवश्यक योगदान का महत्व समझ ही नहीं पाते। पुरषों को ये समझना होगा स्त्री परिवार की धुरी है एवं इसके निर्माण में पुरषों को भी अपनी भूमिका निभानी है।
३.हमारा सामाजिक ढांचा भी पुरषों के प्रति अधिक उदार है। कुछ सामाजिक मापदंड "पुत्र से ही वंश चलता है", "बेटियां पराया धन है", इस सोच ने स्त्री का विकास अवरूद्ध कर दिया। पराए धन में लेने से पुत्री से मां- बाप का भावनात्मक संबंध क्षीण कर दिया। बेटा तो ढलती उम्र का सहारा है ये सोच माता-पिता को पुत्र से अधिक जोड़ती है। आवश्यकता है ये सोच बदली जाए, बेटियां भी घर की जिम्मेदारी उसी तरह उठाए जैसे बेटा करता है। स्त्री को स्वयं की सोच बदलनी होगी।
४. दहेज, घरेलू हिंसा, उत्पीड़न, यौन शौषण आदि अनेक हमारी सामाजिक बुराइयों के कारण कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध हो रहे है। कई बार तो लगता है स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन है। सास-बहू, ननद-भाभी के रिश्तों में कटुता - ईर्ष्या ही अधिक देखी गई है, मधुरता कम, इसे बदलने की सख्त जरूरत है।
५ . हमारे धार्मिक ग्रंथों में स्त्री जन्म पूर्व कृत पापो का परिणाम कहां गया है, स्त्री को नरक का घर - नरक का द्वार कहा गया। ये सोच भारतीय समाज की वेदांत दर्शन के अनुरूप नहीं है। इसी धार्मिक सोच को बदलना पड़ेगा।
६. समाज व सरकार दोनों को समझना होगा, स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक जरुरते भिन्न-भिन्न है। शिक्षा स्थलों-कार्य स्थलों-सार्वजनिक जगहों पर स्त्रियों की अनिवार्य आवश्यकता पूर्ति की सुविधाएं देनी होगी। तकनीक के युग ने कार्य के समान अवसर उपलब्ध करवा दिए है, लेकिन मूलभूत सुविधाओं का निर्माण करना चाहिए।
७. शिक्षा समाज व राष्ट्र के उत्थान में सबसे जरूरी हैं। स्त्री शिक्षा के प्रति समाज को अधिक जागरूक होना होगा। विद्यालयों में इस अनुरूप सुविधाएं देनी होगी। ये बात हमारे ध्यान में रहने चाहिए कन्या शिक्षण से ही देश ऊंचा उठेगा।
८. सरकार ने स्त्री सुरक्षा हेतु कानूनों का निर्माण किया है, कई जगह इनका दुरपयोग भी हो रहा है जो कि स्त्री के पक्ष को कमजोर भी करता है। कानून का निष्पक्ष पालन एवं दुरपयोग न हो, इससे ही कानून प्रभावी बनेंगे। त्वरित न्याय, पारदर्शी कानून वयवस्था से सामाजिक स्थितियों में सकारात्मक परिवर्तन होगा
हजारों वर्षो की सोच बदलने में समय लगेगा, कई पीढ़ियां खप जाएगी, प्रतिरोध-अवरोध पैदा होगे लेकिन प्रसन्नता है की समाज ने सकारात्मक दिशा में कदम उठाए हैं लेकिन अब भी बहुत लंबा सफर बाकी हैं, कितना वक्त लगेगा कह नहीं सकते, लेकिन सुबह होनी अनिवार्य है, आखिर में
हमे आवश्यक रूप से ये ध्यान रखना चाहिए कि स्त्री-पुरुषों के चित में बुनियादी भेद व भिन्नता हैं। यह भिन्नता ही एक दूसरे के प्रति आकर्षण का कारण है, जो जीवन को समरस बनाती हैं।स्त्री एक नकली पुरुष बन जाए या पुरुष एक नकली स्त्री बन जाए, इससे कुछ रचनात्मक नहीं होगा एवं दोनों के जीवन त्रासदीपूर्ण हो जायेगे। हमे अनिवार्य रूप से, भिन्नता को समझते हुए, दोनों को ही अपने नेसर्गिक गुणों का विकास करना चाहिए, जिससे जीवन अर्थपूर्ण बन सके।
जिनेन्द्र कुमार कोठारी
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)
🙏🙏
ReplyDeleteजय-जिनेन्द्र!
*संक्षिप्त में, किंतु बहुत ही सारगर्भित और सुंदर अभिव्यक्ति है ।
स्त्री और पुरुष दोनों दो भिन्न शक्तियों के प्रतीक हैं जिनका आत्म-अस्तित्व स्वतंत्र है किन्तु संसार संरचना हेतु दोनों शक्तियां एक दूसरे के अभाव में अधूरी हैं
इतिहास साक्षी है किसी भी देश, समाज या राष्ट्र का स्वर्णिम युग वही समय रहा है जब स्त्री और पुरुष को समान अधिकार मिले हैं। दोनों शक्तियों का समान रुप से सम्मान होता रहा है।
इसके विपरीत समय समाज और राष्ट्र के पतन की अवस्था को ही दर्शाता है।
मध्यम युग से आज तक नारी शक्ति की उपेक्षा और शोषण का दुष्परिणाम भोगने के बाद आज उसका पुनर्मूल्यांकन हो रहा है और इस शक्ति के पुनर्स्थापन हेतु कानून भी बने हैं।
जरुरत है उनका दुरुपयोग न हो। और जहां कानून लागू नहीं हो रहे हैैं वहां उनका सुव्यवस्थित स्थापन हो।
thanks
Deleteॐ अर्हम
ReplyDeletethanks
DeleteOm.arhm
Deleteबहुत सुंदर विचारों की प्रस्तुति।
ReplyDeleteBhai jinendra
ReplyDeleteJai jinendra
अति सुंदर
धैर्य ,समझ, सहनशीलता का, समंदर है
ReplyDeleteस्त्री ओरत महिला नारी ही घर का घर है
घर का उजाला रात की चांदनी जगदाधार
नारी वो जिसमें ज़िन्दगी जीने का हुनर है
प्रेम, करूणा, दया ,स्नेह, ममता का सागर
लाज ,हिम्मत गिरे को उठाने का जिगर है
जश्न ए जिंदगी, दिल ए सुकून जिसके दम
ज़िन्दगी है औरत ही ज़िन्दगी का सफर है
हैं संगीत ,साहित्य,शब्द,वाणी,कला, भाव
औरत ही दुनिया के हर लफ्ज़ का असर है
महोब्बत ,जुर्रत,किस्मत,नफरत, नजाकत
औरत ,प्यार ही प्यार कयामत ओ नजर है
डॉ प्रेमदान भारतीय through whatsapp
Bahut Gyab Vardak Parkasan to Motivated for Ladies.
ReplyDeleteJai Jinendra
बहुत ही शानदार एवं सारगर्भित ...
ReplyDeleteवर्तमान हालातों को देखते हुए बहुत ही सारगर्भित लेख। हार्दिक बधाई आदरणीय
ReplyDeleteI fully agree with your opinions about equal
Deleteimportance of male and female in the univers. In fact woman has more important role in several aspects, that is why she is being worshiped.
Thank for sharing this important thought.
I read it . And achaa laga aapki samvedansheelta ko jankat. I would sugest ki next article mai samaj ki soch aur nazaria parivartan karne ke upay ko bhi shamil kare 👍👍
ReplyDeleterakesh jain , jodhpur on whatsapp
👌👍
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