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साधु का लक्षण

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वर्तमान माघ महीने में जहां हरिद्वार में कुंभ की तैयारी है। वहीं प्रयागराज इलाहाबाद में माघ महोत्सव मनाया जा रहा है। वृंदावन में भी एक छोटा कुंभ मनाया जा रहा है। इसी भांति जैनो में तेरापंथ धर्म संघ का महाकुंभ मर्यादा महोत्सव भी माघ महीने में है। इन सब अवसरों पर साधु-संतों के बारे में और उनके दर्शनार्थ हजारों लाखों करोड़ों लोग वहां पहुंचते हैं। उनकी संतता व फक्कडपन को देखकर स्वयं भी संयमित होने का प्रयास करते हैं , मर्यादित होने का प्रयास करते हैं। ऐसे अवसरों पर हमें साधु के महत्व व उनके जीवन दर्शन का भी पता चलता है जो कि जानना हमारे जीवन के लिए भी बहुत जरूरी है। प्रस्तुत पापा जी श्री सोहनराज जी कोठारी (तेरापंथ प्रवक्ता , शासनसेवी , पूर्व न्यायाधीश) का लेख साधु के महत्व के बारे में है हम इस माघ महीने में इससे प्रेरणा लेकर हममें भी संत भाव आये , ये काम्य है। - मर्यादा कुमार कोठारी। साधु सा ही साधे काया:- साधु शब्द की जो परिभाषा इस लोकोक्ति में मात्र दो शब्दों में प्रकट की गई है , वह सचमुच आश्चर्यकारी एवं विलक्षण है। भारतवर्ष में सभी सम्प्रदाय के लाखों साधु-सन्यासी रहते

स्त्री - समानता - सुरक्षा - सम्मान

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हमारी यह सृष्टि द्विसंयोगिक है। एक पक्ष का प्रतिपक्ष भी होता है। दिन है तो रात भी है , जीव है तो अजीव का भी अस्तित्व है , मिलन हुआ है तो वियोग होगा ही। इसी सृष्टि में निर्माण एवं संचालन हेतु नर व मादा की संरचना हुई (मनुष्य-पशु-पक्षी सभी जीव योनियों में)। मनुष्यों को छोड़ कर शेष जीव सृष्टि में नर एवं मादा का सामाजिक जीवन प्राकृतिक रूप से , बंधे हुए नियमों से चलता है। मानवीय सभ्यता का जैसे-जैसे विकास हुआ , स्त्री-पुरुष की भूमिकाएं बदलती रही , स्थितियों में परिवर्तन हुए एवं धीरे-धीरे असमानता वाले समाज का निर्माण हो गया। हजारों वर्ष पूर्व , मानवीय सभ्यता के आरंभिक अवस्था में , मनुष्य भोजन एवं अन्य आवश्यकता हेतु शिकार व वनो पर निर्भर था , हर रोज शिकार करना , हिंसक पशुओं से अपने आप को बचाना आदि दुष्कर कार्य पुरुषों के अधिक उपयुक्त थे , स्त्री की जैविक जवाबदारियां थी , छोटे शिशु या बच्चो के साथ जंगल जाना अत्यधिक जोखमी था। अतः स्त्री को सुरक्षित रखा जाता था। उस परिस्थिति में काम का आदर्श बंटवारा था। सिंधु - सरस्वती सभ्यता , उसके बाद के वैदिक काल , सोलह जनपद काल , मौर्य साम्राज्य- गुप्त