साधु का लक्षण

वर्तमान माघ महीने में जहां हरिद्वार में कुंभ की तैयारी है। वहीं प्रयागराज इलाहाबाद में माघ महोत्सव मनाया जा रहा है। वृंदावन में भी एक छोटा कुंभ मनाया जा रहा है। इसी भांति जैनो में तेरापंथ धर्म संघ का महाकुंभ मर्यादा महोत्सव भी माघ महीने में है। इन सब अवसरों पर साधु-संतों के बारे में और उनके दर्शनार्थ हजारों लाखों करोड़ों लोग वहां पहुंचते हैं। उनकी संतता व फक्कडपन को देखकर स्वयं भी संयमित होने का प्रयास करते हैं, मर्यादित होने का प्रयास करते हैं। ऐसे अवसरों पर हमें साधु के महत्व व उनके जीवन दर्शन का भी पता चलता है जो कि जानना हमारे जीवन के लिए भी बहुत जरूरी है। प्रस्तुत पापा जी श्री सोहनराज जी कोठारी (तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश) का लेख साधु के महत्व के बारे में है हम इस माघ महीने में इससे प्रेरणा लेकर हममें भी संत भाव आये, ये काम्य है।

- मर्यादा कुमार कोठारी।


साधु सा ही साधे काया:-

साधु शब्द की जो परिभाषा इस लोकोक्ति में मात्र दो शब्दों में प्रकट की गई है, वह सचमुच आश्चर्यकारी एवं विलक्षण है। भारतवर्ष में सभी सम्प्रदाय के लाखों साधु-सन्यासी रहते हैं, उस परिप्रेक्ष्य में साधु की यह सटीक व सही परिभाषा बहुत ही प्रासंगिक हो जाती है।  इस लोकोक्ति का सीधा-सा अर्थ है कि जो व्यक्ति अपने शरीर को साध लेता है, वही साधु है। शरीर से अभिप्राय उस चेतनामय शरीर से है, जो अपनी चेतना की अभिव्यक्ति मन और पांच इन्द्रियों से प्रकट कर बाहरी जगत् से अपना संपर्क बनाता है। अतः शरीर साधने के तथ्य से यह भी ध्वनित होता है कि मन और पांचों इन्द्रियां यथा श्रवण, चक्षु, प्राण, रसना एवं स्पर्शेन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण स्थापित किया जाय। जो व्यक्ति मन और अपने पांचों इंद्रियों पर नियंत्रण रख सकता है, उन्हें अनुशासित और मर्यादित रख सकता है। उन्हें उन्मुख और स्वच्छंद नहीं छोड़ता, वस्तुतः वही साधु है। हर व्यक्ति देखता है, सुनता है, खाता-पीता है, सूंघता है, वस्तु या व्यक्ति का स्पर्श करता है और उसके साथ अपने मन को जोड़ता है पर यदि उसके इन कार्यों से व्यक्ति में अन्तर्निहित चेतना चंचल होकर उन प्रवृतियों के साथ अपने को जोड़ लेती है या आसक्त हो जताी है, तब मानना चाहिए कि व्यक्ति की इन्द्रियां और मन उसके नियंत्रण में नहीं है, उसने शरीर को साधा नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य की इन सारी प्रवृतियों में वह मात्र साक्षीभाव से उसे देखता व करता रहे, अपनी प्रियता व अप्रियता के भाव उसके साथ न जोड़े, मात्र आवश्यकता पूर्ति के सिवाय, उसकी अन्य कामना उसमें निहित न हो, उसकी चेतना अडोल व निष्कंप बनी रहे, तो मानना चाहिए कि उसने अपने आत्म-युक्त शरीर को साध लिया है और यदि यह स्थिति सतत व स्थायी बन गई है, तो वह निश्चित तौर से साधु है। इसीलिए समत्व बोध की दिशा में की जाने वाली सारी प्रक्रियाओं को आत्म साधना या साधना नाम से  संबोधित किया जाता है।

साधना की दिशा में प्रगति करने के लिए अत्यंत आवश्यक है कि न केवल बाहरी जगत् के सब व्यक्ति या पदार्थों के प्रति ममत्व भाव छोड़ा जाए पर शरीर के प्रति भी किंचितमात्र ममत्वभाव न रहे। श्रमण भगवान् महावीर ने दीक्षा स्वीकार करते ही पहला संकल्प यह स्वीकार किया कि वे शरीर के प्रति ममत्व भाव नहीं रखेंगे। बारह वर्ष तक सतत् व श्रमसाध्य निर्भय साधना ने उनकी आत्मा को  निखार कर पूर्णतया स्थिर व शुद्ध बना दिया और वे सर्वज्ञ अर्हत् बन गए। आचारांग सूत्र नवम अध्ययन चतुर्थ उद्धेशक श्लोक 16 में इस अवस्था का वर्णन करते हुए कहा गया है-

‘‘सयमेच अनिसनागम्म आयत जोगमाय सोहीए।

अभिणिबुड़े अमाइल्ले आवकहं भगवं समिआसी।।

आत्मशुद्धि के द्वारा आयत योग (मन-वचन-शरीर की संयत प्रवृति) को प्राप्त कर भगवान् उपशांत हो गए। वे सम्पूर्ण साधना काल में समग्रता से संयमित रहे।‘‘  भगवान ने श्रमण निग्रंथों को निर्देश देते हुए कहा,

‘‘अवि अप्पणो विदेहंमि, नायरंति समाइयं’’

(दशवैकालिक 622 )

अर्थात् निग्रंथ मुनि अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं रखे।

महाकवि तुलसीदास ने रामचरित मानस में संतों का वर्णन करते हुए कहा है-

‘‘संत सरल चित, जगत हित, सुभाऊ सनेहु’’

संतों का हृदय सरल होता है और वे जगत् के हितकारी होते है। संतु तुलसीदासजी ने एक दोहे में संतों के बारे में बताया है कि-

‘‘संत कष्ट सही आपुहिं, सुखी करे जो समीप।

आप जरै पै और को, करे उजेरो दीप।।’’

अर्थात् संत कष्ट सहकर भी अपने आसपास के वातावरण को सुखद बनाते है जैसे दीप स्वयं जलकर जग को प्रकाश देता है।

युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने भी संतों के गुणों को व्याख्यायित करते हुए कहा-

(1) ‘‘आत्म साधना लीन अनवरत, विषय वासनाओं से उपरता तुलसी है

    अनिकेत। नमोलोए सव्व साहुणं।।

(2) ‘‘सदा लाभ और अलाभ में, सुख-दुःख में मध्यस्थ है।

    शांतिमय, वैराग्यमय, आनंदमय, आत्मस्थ है।।

    वासना से विरक्त, आकृति, सहज परम प्रसन्न है।

    साधना धन साधु, अन्तरभाव में आसन्न है।।

(परमेंष्ठी वंदना)

उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जिस साधक ने अन्तर्मुखी बन-कर तन,मन,इन्द्रियों के संयम को स्वीकार कर लिया और विषय वासनाएं जिसकी तिरोहित हो गई, वही साधुत्व की आनन्ददायिनी स्थिति तक पहुंच गया पर जिसने तन-मन इन्दियों को नही साधा, चेतना शुद्धि की जिसका लक्ष्य नहीं बना, व मात्र देहिक इन्द्रिय भागों में रमा रहा, उसे साधु कदापि नहीं कहा जा सकता, साधना-पथ को स्वीकार करने वाला नहीं कहा जा सकता। भगवान् महावीर ने धर्म की परिभाषा करते हुए कहा है-

‘‘धम्मों मंगल मुक्किठं अहिंसा संजमो तवो’’

(दशवैकालिक 1/1)

 


इस तरह भगवद् वाणी में धर्म को अहिंसा, संयम व तप के स्वरूप में स्वीकार किया गया है, जिसमें जहां अहिंसा व्यक्ति के बाहरी आचरण में परिलक्षित होती है, तप आत्मा की आंतरिक अवस्था का परिणाम है, वहां संयम, अहिंसा व तप के बीच में सेतु है  जो आंतरिक तपोसाधना को बाहर अहिंसक व्यवहार में प्रगट करता है व बाहरी अहिंसा व्यवहार को आतंरिक तप में परिवर्तित कर आत्मा तक पहुंचाता है। ऐसी स्थिति में संयम का महत्व निर्विवाद है और यही संयम जब तीन करण-तीन योग में (यानि मन, वचन, शरीर से करने, कराने या अनुमोदन करने की विरति) स्वीकार कर लेता है तब साधुत्व का प्रारम्भ होता है और संयम की साधना जब पूरी तरह फल जाती है, साधुत्व सर्वांश में प्रकट हो जाता है। गृहस्थ जीवन की सारी ममताओं का जब परित्याग हो जाता है, तब साधुत्व का स्पर्श होता है, इसलिए अक्सर यही भी कहा जाता है कि ‘‘जब गुहस्थ मरता है, जब साधु जन्मता है।’’ इस सारे विवेचन से यह निसंदेह कहा जा सकता है कि जिसने अपने मन, इन्द्रियों या शरीर पर संयम कर लिया, वही सच्चा साधक है, वही सच्चा साधु है। आचार्यश्री तुलसी ने तो गृहस्थों को भी, अणुव्रत आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने हेतु आव्हान करते,  आंदोलन का एकमात्र घोष दिया है-

‘‘संयमः खलु जीवनम्’’ (अर्थात् संयम ही जीवन है।) संयम की साधना का विकास हर व्यक्ति का लक्ष्य बने, यह अभीष्ट है और साधु में उसका सर्वांगीण स्वरूप प्रकट हो, यह आवश्यक है। कौन साधु है और कौन नहीं, इसकी एकमात्र पहचान यह है कि, जिसने संयम की सम्पूर्ण साधना स्वीकार ली, वही साधु है। इस दृष्टि से यह लोकोक्ति एक शाश्वत सत्य है।

- श्री सोहनराज जी कोठारी 

(तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश)

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