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कर्मवाद - जैन दर्शन परिप्रेक्ष्य

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  कर्म हमारे अतीत का लेखा-जोखा है। विश्व के प्रत्येक धर्म में अच्छे बुरे कर्म की अवधारणा है। आध्यात्मिक साधना एवम उसके ज्ञान की व्याख्या कर्म शास्त्र को जाने बिना नहीं की जा सकती। कर्मवाद हमारे कृत कार्यों-आचरण की मीमांसा करता है। बाहरी एवम् भीतरी कारकों से हमारे सभी कार्य प्रभावित होते है। बाहरी कारण स्पष्ट दृष्टि गोचर है एवम् भीतरी दिखाई तो नहीं देते लेकिन व्यक्ति के आचरण पर गहरा प्रभाव डालते हैं। कर्मशास्त्र मन की इन गहनतम अवस्थाओं की खोज का अध्ययन है। वैदिक मान्यता है जीवात्मा कर्म करने को स्वतंत्र है। सृष्टि के नियंता /भगवान की न्याय- वयवस्था में अच्छे-बुरे कर्मो का फल भोगना पड़ता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य अपने कुकर्मों के लिये स्वयं उत्तरदाई इसलिए है क्योंकि उन्हें करने या न करने का निर्णय अल्लाह मनुष्य को स्वयं ही लेने देता है। उसके कुकर्मों का भी पूर्व ज्ञान खुदा को होता है। ईसाई , बौद्ध आदि सभी धर्मो में कर्म एवम् कर्म सिद्धांत की मान्यता है। १) जैन दर्शन मतानुसार सबसे प्रथम हम यह देखेंगे कर्म है क्या ? भगवान महावीर ने स्पष्टत "कर्म को पुदगल" ( matter/ पर...

साधु का लक्षण

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वर्तमान माघ महीने में जहां हरिद्वार में कुंभ की तैयारी है। वहीं प्रयागराज इलाहाबाद में माघ महोत्सव मनाया जा रहा है। वृंदावन में भी एक छोटा कुंभ मनाया जा रहा है। इसी भांति जैनो में तेरापंथ धर्म संघ का महाकुंभ मर्यादा महोत्सव भी माघ महीने में है। इन सब अवसरों पर साधु-संतों के बारे में और उनके दर्शनार्थ हजारों लाखों करोड़ों लोग वहां पहुंचते हैं। उनकी संतता व फक्कडपन को देखकर स्वयं भी संयमित होने का प्रयास करते हैं , मर्यादित होने का प्रयास करते हैं। ऐसे अवसरों पर हमें साधु के महत्व व उनके जीवन दर्शन का भी पता चलता है जो कि जानना हमारे जीवन के लिए भी बहुत जरूरी है। प्रस्तुत पापा जी श्री सोहनराज जी कोठारी (तेरापंथ प्रवक्ता , शासनसेवी , पूर्व न्यायाधीश) का लेख साधु के महत्व के बारे में है हम इस माघ महीने में इससे प्रेरणा लेकर हममें भी संत भाव आये , ये काम्य है। - मर्यादा कुमार कोठारी। साधु सा ही साधे काया:- साधु शब्द की जो परिभाषा इस लोकोक्ति में मात्र दो शब्दों में प्रकट की गई है , वह सचमुच आश्चर्यकारी एवं विलक्षण है। भारतवर्ष में सभी सम्प्रदाय के लाखों साधु-सन्यासी रहते ...