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सजगता का सार

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  स्वलप शब्दों में समग्र दर्शन के अंतर्गत पापा जी सोहनराज जी कोठारी द्वारा लिखा गया कहावत पर यह लेख जो कि हमें सजग रहने की प्रेरणा देता है। यह इसमे कहा गया प्रमाद ना करें । प्रमादी   व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।   हर कार्य को सजगता के साथ करने का प्रयास करें जब ही हम सफल हो पाएंगे। -----मर्यादा कुमार कोठारी   सूतो रे पाडा लावे यह शब्द समूह ठेठ ग्रामीण अंचल की सभ्यता से जुड़े होने के उपरांत भी इसमें जागरण का जो युग बोध निहित है , वह स्वयं में अत्यंत सारभूत व सार्थक है। कहा जाता है कि एक गाँव में दो व्यक्ति पास-पास रहते थे , दोनों के एक-एक भैंस थी व संयोग से दोनों का गर्भाधान साथ ही हुआ। एक व्यक्ति भैंस की पूरी सार-संभाल करता व उसके गर्भ का पूरा ध्यान रखता जबकि दूसरा व्यक्ति अपने आलस्य और प्रमाद के कारण भैंस का पूरा ध्यान नहीं रख पाता। गर्भाधान की तरह दोनों भैंसों का प्रसव रात्रि में एक ही समय हुआ। भैस की सार-संभाल करने वाला उस समय जाग रहा था व उसका पड़ोसी सोया हुआ था। जागने वाले की भैंस ने पाड़े (बछड़े) को जन्म दिया व पड़ोसी की भैंस ने पाड़ी (बछड़ी) को जन्म दिया। पाड़ी...

कहते कुछ हैं करते कुछ है

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  सारी दुनिया मुंह पर मास्क लगाकर चल रही है पर कोरोना वायरस के डर से। ये देखकर कई बार यह लगता है कि पहले ही कई लोग कई मुंह लगाकर रहते आ रहे हैं। कहते कुछ हैं करते कुछ है। यह बात हर स्तर पर हर जगह पर देखने को आपको मिल सकती है। थोड़ा सा हम ध्यान लगाएं तो पता चलेगा जो मानदंड है या जो पैमाना है वह अपने लिए अलग दूसरे के लिए अलग। यह बात गले कम उतरती है लेकिन ऐसा हम सब करते हैं। मैंने जहां तक अनुभव किया है सब जगह यही चलता है जैसे मैं राजनीति की बात करूं तो राजनीति में अपनी पार्टी में कोई दूसरा  पार्टी का सदस्य आता है तो कहते हैं उसका हृदय परिवर्तन हो गया और अपनी पार्टी से कोई सदस्य जाता है तो कहा जाता है वह दलबदलू है। यह दोहरापन जो है यह हमारी दुनिया में बराबर चलता है। अब मास्क लगाने के बाद तो चेहरों का पता ही नहीं चलता। मेरे को अभी कई बार बाहर जाने का काम पड़ा तो कई लोगों ने कहा पहचाना नहीं क्योंकि चेहरे पर मास्क था। लेकिन मुझे लगता है हम तो वैसे भी कई चेहरे लगा कर चलते हैं जहां दोहरा पन में जीते हैं। ये मास्क तो बाहरी आवरण है भीतर का चेहरा  जो दोगलापन लिए है वह कैसे नजर आए। म...

मृत्यु के बाद: क्या - कहां - कैसे

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मृत्य एक शाश्वत सत्य है , इस सत्य से प्रत्येक मनुष्य भागना चाहता है। विभिन्न धर्मों एवं विचारधाराओं में मरणोपरांत जीवन की परस्पर विरोधी धारणाएं प्रचलित हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि विचारशील मनुष्यो का एक वर्ग यह मानता है कि मृत्यु के बाद उसका कुछ बाकी नहीं रहता। शेष अपने-अपने धर्म संप्रदायों के हिसाब से अपनी-अपनी मान्यताएं बना लेते है। अतः इस विषय पर एक बहुत बड़ी भ्रांति छाई हुई है। हमारी यह सृष्टि प्रकृति के नियमों से चलती है। एक कण से लेकर बड़े तारामंडल एक अकाट्य नियम सूत्र में बंधे हुए हैं। मानव की जीवात्मा या आत्मा इस प्रकृति की सबसे बड़ी देन है। प्रत्येक धर्म एवं विचारधारा ने इस भौतिक देह से परे , आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। पुनर्जन्म एवं जन्मों की श्रंखला की मान्यता प्राय सभी समुदाय में रही है , लेकिन मृत्यु के पश्चात क्या जीवन है ? जीवात्मा क्या गति करती है ? इस विषय पर पिछले १००-१५० वर्षों में वैज्ञानिक ढंग से अनुसंधान हुआ है , जो हमारी इस संबंध की जिज्ञासा को शांत करता है। प्राचीन वैदिक एवम् श्रमण संस्कृति के समाज को इस विषय का ज्ञान था। सनातन धर्म में वानप्रस्थ व सं...

समय - कल और आज

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समय का जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है एक समय था जब हमारे परदादाजी - पर दा दीजी 2 या 4 जोड़ी कपड़े में सारी जिंदगी निकाल लेते थे। घूमना-फिरना उनका इतना हि होता था की जसोल से जोधपुर (करीब 120 किमी) भी उनको एक अलग ग्रह लगता था और इतनी सादगी के साथ रहते थे , मोटा पहनते थे , मोटा खाते थे। सारी चीजें उनके पास शुद्धता के रूप में रहती थी क्योंकि दसियों गाय-भैंसों घर में बंधी हुई थी । आने जाने के लिए घर में ऊंट बंधे हुए थे , बैलगाड़ियाँ थी । घर में खाने के लिए धान के रूप में बाजरी की कोई कमी नहीं थी । कोठार के को ठार भरे रहते थे। परिवार भी सारे एक साथ रहते थे और सभी सुख दुख में साथ निभाते थे और एक ही पॉल के अंदर सात पीढ़ी के परिवार साथ में ही रहते थे। सभी चाचा - ताऊ , भाई - बहन , दादा - दादी आपस में बैठकर सुख दुख की बातें करते थे और जीवन का वह एक अलग ही आनंद उठाते थे। उस समय संतोषी जीवन था। सभी मेहनतकश लोग थे। सारे कार्य हाथ से करते थे तथा संतोष उनका सबसे बड़ा धन था। परिवार में एकजुटता उनकी पूंजी थी। जरूर तें सीमित थी। इच्छाओं का संयम था। जिस भी हाल में थे , उसमें खुश व आनं...