सजगता का सार

 

स्वलप शब्दों में समग्र दर्शन के अंतर्गत पापा जी सोहनराज जी कोठारी द्वारा लिखा गया कहावत पर यह लेख जो कि हमें सजग रहने की प्रेरणा देता है। यह इसमे कहा गया प्रमाद ना करें । प्रमादी  व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।  हर कार्य को सजगता के साथ करने का प्रयास करें जब ही हम सफल हो पाएंगे।

-----मर्यादा कुमार कोठारी

 

सूतो रे पाडा लावे

यह शब्द समूह ठेठ ग्रामीण अंचल की सभ्यता से जुड़े होने के उपरांत भी इसमें जागरण का जो युग बोध निहित है, वह स्वयं में अत्यंत सारभूत व सार्थक है। कहा जाता है कि एक गाँव में दो व्यक्ति पास-पास रहते थे, दोनों के एक-एक भैंस थी व संयोग से दोनों का गर्भाधान साथ ही हुआ। एक व्यक्ति भैंस की पूरी सार-संभाल करता व उसके गर्भ का पूरा ध्यान रखता जबकि दूसरा व्यक्ति अपने आलस्य और प्रमाद के कारण भैंस का पूरा ध्यान नहीं रख पाता। गर्भाधान की तरह दोनों भैंसों का प्रसव रात्रि में एक ही समय हुआ। भैस की सार-संभाल करने वाला उस समय जाग रहा था व उसका पड़ोसी सोया हुआ था। जागने वाले की भैंस ने पाड़े (बछड़े) को जन्म दिया व पड़ोसी की भैंस ने पाड़ी (बछड़ी) को जन्म दिया। पाड़ी बड़ी होने पर भैंस बन जाती है व उसकी कीमत अच्छी प्राप्त होती है, जबकि पाडा बड़ा होने पर मात्र भार ढोने के लिए भैंसा ही रह जाता है व उसका खास मूल्य नहीं होता। अतः जाग रहे व्यक्ति ने अपनी भैंस का पाडा, पड़ोसी की भैंस के पास रख दिया व उसकी पाड़ी को अपनी भैंस के सम्मुख धर दिदया। जानवरों में अपने-पराये का इतना बोध नहीं होता अतः भैंसों ने अपने पास पड़े पाड़ा-पाड़ी को चाटना शुरू कर दिया व स्तनपान कराया। प्रातःकाल जब दूसरे भैंस वाला जगा तो उसने अपनी भैस के पास पाड़े को देखा तो उसने कर्म ठोकते हुए कहा, ‘‘हाय! मेरी भैंस ने पाड़ा ब्याया व पड़ोसी की भैंस ने पाड़ी को जन्म दिया, मेरे भाग्य ने साथ नहीं दिया। उसकी निराशा भरी वाणी सुनकर पड़ोसी ने कहा, ‘‘भाई, सूतों रे तो पाड़ा हीज लावे, जो आदमी सूतों रेवे, उणरो भाग्यपण सो जावे।’’ कहते है, तब से यह लोकोक्ति प्रयोग में आने लगी।

इस देश में प्रातःकाल गाए जाने वाले विश्रुत भजन ‘‘उठ जाग मुसाफिर, भोर भई’’ की प्रथम पंक्ति में कहा गया है, ‘‘जो जागत है, सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।’’ मैं समझता हूँ, यह पंक्ति बहुत ही प्रेरक एवं जीवनोंपयोगी है। सोने को हम केवल शरीरिक नींद के अर्थ में ही न लें, बल्कि इसका सही व गहरा अर्थ है- अपने प्रति बेभान होना, मूर्छित होना, बेहोश होना, जैसा कि निंद्रावस्था में मनुष्य होता है। इस परिपेक्ष में जो व्यक्ति अपने स्वयं के परिष्कार अर्थात् आत्म उज्जवलता के प्रति बेभान होता, और सांसारिरक कामभोगों या नश्वर अर्थ, सत्ता, धन वैभव आदि में आसक्त होकर, अपने जीवन का मूल लक्ष्य आत्मशुद्धि या कर्म बंधन-मुक्ति के प्रति जागरूक नहीं रहता, वह अपना जीवन व्यर्थ खो देता है व तब ‘‘जो सोवत है, सो खोवत है’’ उक्ति चरितार्थ हो जाती है।

जैव तत्त्व  ज्ञान में कर्मबंधन का एक कारण बताया गया है, ‘‘प्रमाद’’ जिसका परिभाषिक अर्थ है, आत्मा की उज्जवलता के प्रति अनुत्साह, मूर्च्छा, बेहोशी, अचेतनता अर्थवा निंद्रा। इसके विपरीत अप्रमाद का अर्थ है होश, अप्रमाद, जागरूकता। इस विषय में जैनागमों में एक महत्वपूर्ण सूत्र का पद मिलता है जो इस प्रकार है-

पमायं कम्म माहंसु, अप्पमायं तहावएं।

तब भावा देसओ, वानि, वालं पंडियमेववा।।

अर्थात् प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म, अतः प्रवृतियां प्रमाद युक्त हैं, वे कर्मबंधन करने वाली है, और जो प्रवृतियां प्रमादरहित है, वे कर्मबंधन नहीं करती। प्रमाद के होने व न होने से मनुष्य क्रमशः (मूर्ख) और पंडित कहलाता है। भगवान् महावीर ने इसीलिए अपने प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को प्रेरण देते कहा-

वोच्छिन्द सिणे हमप्पणो, कुमुयं सार इयं व पाणियं।

से सव्व सिणे हटज्जिए, समयं गोयमा मा पमाएग।

                           (उत्तराध्ययन सूत्र 10/28)

जैसे कमल शरद काल के निर्मल जल को नहीं छूता और अलिप्त रहता है, वेसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटाकर सब प्रकार के स्नेह बंधनों से रहित होना है, अतः ‘‘गौतम क्षण मात्र भी प्रसाद न करे।’’ भगवान् का ‘‘क्षण मात्र भी प्रमाद न कर’’ संदेश न केवल गौतम के लिए है बल्कि सारी मानव जाति के लिये है। इसी संकेत सूत्र को स्पष्ट कर भगवान् ने अप्रमाद सूत्र के पद में आगे कहा

सुतेसु यावी पडि बुद्ध जीवी, न वीससे पडिए आसुपन्ने।

घोरा मुहुता अबलं सरीरं, भारूंड पक्खी व चरडप्पमते।।

                                  (उत्तराध्ययन 4/6)

अर्थात् आशुप्रज्ञ पंडित पुरूष को मोह निद्रा में सोए हुए संसारी मनुष्यों के बीच,, सब तरह से जागरूक रहना चाहिए और नश्वर तन-धन-जन किसी पर भरोसा नहीं करना चाहिए। काल निर्दयी है, शरीर दुर्बल है, यह जान कर भारूंड पक्षी की तरह, अप्रमत्त भाव से रहना व  विहरण करना चाहिए।

भगवान् महावीर जीवन भर पूर्णतया अप्रमाद अवस्था में जागरूक रहे और उनकी स्तुति में उनके इस विरल विशेषता का उल्लेख मिलता है-

अकसाई विगयगेही, सद्धरूवेसुमुच्छिएझाति।

छउमत्थे विपरूकममाणे, णो पमायं सई विकुवित्था।।

                                  (आयारो 4/15)

भगवान् कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को शांत कर, अनासक्त तथा शब्द में अगृद्ध रहकर ध्यान करते थे। उन्होंने कर्मावृत दशा में पराक्रम करते हुए, एक बार भी प्रमाद नहीं यिा, प्रतिक्षण जागरूक रहे।

इसी प्रकार धर्मग्रन्थों में स्थान-स्थान पर प्रमाद से विरत होने व जागृत रहने का उद्बोधन दिया गया है, जैसे-

जग्गाहि मा सुवाहि या ते धम्म चरणे पमतस्स।

काहिंति बहुं चोरा, संजम जोगे हिडा कम्म।।

जागते रहो, सोओ मत, धर्माचरण में प्रमत्त होने पर लुटेरे संयम धन को लूट लेंगे।

साधनाकाल में एक शिष्य ने गुरू से प्रश्न किया कि संमय निर्वाह के लिए-

कहं चरे कहं चिट्ठे,कहंम मासं कहं गए।

कहं भुंजंतो भासंता, पाप कम्म न बंधई।।

अर्थात् कैसे चलुं, ठहरूं, बैठू, बोलू या भोजन करूं, जिससे पाप कर्म न बंधे।

गुरू ने उत्तर देते हुए कहा-

जयं चरे जयं चिट्ठे जयं मासे जयं सए।

जयं भुंजंतो भासंतो, पाप कर्म्म न बंधई।।

                                  (दर्शवैकालिक अ. 4, सा. 7-8)

अर्थात् यत्नपूर्वक यानी सावधानी से चलो, ठहरो, बैठो, सोओ, बोलो, खाओ, जिससे पापकर्म का बंधन नहीं होगा।

साधक अपना हर कार्य जागरूकता पूर्वक करता है। अपने हित के प्रति सजग रहता है, अतः कर्मबंधन नहीं करता, जबकि अन्य व्यक्ति प्रमाद-पूर्वक कार्य करके कर्मबंधन कर लेता है।

स्वामी भीखण्जी, मारवाड़ के मांढ़ा गांव में, रात्रिकाल में प्रवचन दे रहे थे। उनके सामने आसोजी नाम का व्यक्ति बैठा था। वह प्रवचन के दौरान नींद की झपकी लेने लगा, तो स्वामीजी ने, उसे संबोधित करते हुए कहा, ‘‘आसोजी! नींद ले रहे हो?’’ उसने तत्काल जगकर कहा, ‘‘नहीं महाराज!’’ आसोजी को बार-बार नींद की झपकी आने लगी व स्वामीजी ने दो-तीन बार सावधान करते, उनसे वही प्रश्न किया और उन्होंने हर बार ‘‘नहीं महाराज!’’ कहकर उत्तर की पुनरावृति की। स्वामीजी प्रत्युत्पन्न मति के मेधावी पुरूष थे, उन्होंने असत्य को उजागर करने हेतु, चौथी बार प्रश्न किया, ‘‘आसोजी! जीते हो?’’ आसोजी ने, जगकर रटा-रटाया उत्तर दिया, ‘‘नहीं महाराज!’’ उपस्थित जन-समुदाय को हँसी आइ गई तब आसोजी को गलती का भ़ान हुआ। (भिक्षु दृष्टांत 48) वस्तुतः जो व्यक्ति सोता रहता है, वह मरे हुए के समान है और जो जागृत है, उसी का जीवन सही जीवन है। तरापंथ के अष्टमाचार्य श्रीमद्कलूगणी ने संवत् 1993 के भादवा बदि 30 को युवा मुनि तुलसी (22 वर्षीय) को जब अपने पास बुलाकर वृहत् संघ का भार सौंपने की बात कही, तो प्रथम शिक्षा देते हुए कहा, ‘‘तुम सदा सजग रहना। तुम्हारी जागरूकता तुम्हारी अवस्था को प्रौढ़ बना देगी, लोगों को यह कहने का अवसर ही नहीं मिलेगा कि तुम अवस्था में छोटे हो। व जिसमें प्रतिभा व विवेक का बल होता है, वह छोटा होते हुए भी प्रौढ़ होता है, जिसमें ये तत्व नहीं होते वह अवस्थां में बड़ा होने पर भी बच्चा होता है।’’

(महामनस्वी आचार्य श्री कालूगणी, जीवन वृत्त, पृष्ठ सं. । 4।)

(उस घटना को आज आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है और यह कहना अयुक्त नहीं होगा कि जीवन भर ‘‘सजगता’’ के मूल मंत्र को स्वीकार कर युगप्रधान आचार्यश्री, आज विश्व के शीर्ष अध्यात्म पुरूषों में अपना विशिष्अ स्थान, प्राप्त कर चुके हैं और मानवजाति के लिए ‘‘जागरणं’’ का जीवन्त प्रतीक बन गए हैं।)

मेरे विचार में सुषुप्ति और जागरण की निष्पात्तियों के शाश्वत स्वरों को मुखरित करती हुई, उपरोक्त लोकोक्ति मानव जीवन के भविष्य निर्माण को सार्थ दिशादर्शन प्रदान करती है।

- श्री सोहनराज जी कोठारी 

(तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश)

Comments

  1. अति सुन्दर

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  2. मार्मिक दृष्टांत

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  3. Shri Shohan Rajsa Kothari , though a man of legal profession he had religious and social inclinations. He was a good writer too. His above writing is a good example of his contributions in the field of literature.
    Thanks for sharing.

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  4. Very good contribution.
    Thanks for sharing.

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  5. निश्चित ही यह सूक्ति सफल जीवन का प्रेरक व प्रकृष्ट अवबोध है,"जो जागत है सो पावत है,जो सोवत है सो खोवत है"।मैं तो यह मानता हूं की हर क्षेत्र और हर व्यक्ति के लिए इस सूक्ति की उपादेयता व प्रायोगिकता स्वयं सिद्ध है।उपद्रवी लोगों के लिए यह कहा जाता है कि ये सोते हुए ही अच्छे हैं।पर इनके कलह एवं बेसुरे कलरव हमें यह संदेश व्याप्त करते हैं कि जीवन में ये कितने अशांत हैं, विचलित हैं और अपनी नादानी से अभिशप्त जीवन जीने का जुर्म ढो रहे हैं। विद्यार्जन हो,व्यवसाय हो, सामाजिक जीवन हो अथवा पारिवारिक प्रांगण,खेल-कूद हो या अतीव उपलब्धियां अर्जित करने का प्रयास,हर विधा के क्रियान्वयन में जागरूक रहना अति वांछनीय है,अपरिहार्य है।तंद्रा टूटने में जितना विलंब होगा उतना उतना अवसर निरर्थक वह निष्प्राण रह जाएगा।
    जो समय के प्रति सचेष्ट है मंजिल उसके ही इन्तज़ार में बांहे फैलाये स्वागत के लिए उद्यत है। जागते रहो की सार्थक परिभाषा को चरितार्थ करते हुए, चाहे सांसारिक समृद्धि संपन्नता के अभिलाषी हो या आत्मोकर्ष के बटोही हो,जागरूक एवं ऊर्जावान जीवन का प्रकल्प संजोते रहो।

    गौतम सेठिया, चेन्नई।

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  6. ॐ अर्हम
    सुंदर आलेख जागरण पर
    क्षण भर भी प्रमाद न करने का पाठ पढ़ाता यह आलेख भगवान महावीर आचार्य भिक्षु आचार्य तुलसी के दृष्टांत से और जीवंत हो उठा ।
    ग्रामीण अंचल की भाषा का स्वरूप और अर्थ ही लाजवाब होता है ।
    अनुभवी आदरणीय सोहनराज जी के अनुभव और विचारों को अवगत कराने हेतु आदरणीय मर्यादा जी आपका हार्दिक आभार 🙏


    बिंदु जैन, बंगलूर

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  7. अति सारगर्भित शिक्षाप्रद आलेख। शत शत प्रणाम अदरणीय सोहनराजजीसा को । 🙏🙏


    बन्नेचंद मालु, कोलकाता।

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  8. बहुत ही शिक्षाप्रद लेख जिन्होंने अपना जीवन जागरूकता के साथ जिया वह दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बने रहे ऐसे महान आत्मा स्वर्गीय जज साहब श्री सोहन राज जी सा कोठारी को शत-शत प्रणाम सादर श्रद्धांजलि🙏🙏

    सोहन सालेचा, जसोल -सुरत।

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