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तलाक से परिवार पर असर: सिर्फ पति-पत्नी की बात नहीं है !

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  तलाक से परिवार पर असर: सिर्फ पति-पत्नी की बात नहीं है भारतीय सामाजिक परिवेश में विवाह मात्र  दो व्यक्तियों का मिलन नहीं है वरन् दो परिवारों और दो कुलों का भी संबंध है. जैन - हिंदू संस्कृति में विवाह जीवन का अनिवार्य अंग है, जन्म जन्मांतर का रिश्ता है। पाश्चात्य  सांस्कृतिक परिवेश में विवाह मात्र दो व्यक्तियों के साथ रहने मात्रा का संबंध है, आपसी मेल नहीं होने से स्वतंत्र होने की स्वतंत्रता सामाजिक रूप से मान्य है। तलाक, शादी टूटना, संबंध विच्छेद , विवाह खत्म होना आज भी भारतीय परिवेश में अनगमता है, सहज स्वीकार्य नहीं है. पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भारत में भी आज तलाक के मामले दिन प्रतिदिन बढ़ रहे है, स्त्री पुरुष दोनों की सोच में फर्क आ रहा है तथा आज सम्बन्धों में पारिवारिकता से अधिक व्यक्तिगतता आ रही है, लेकिन यह स्थिति बहुत सुखद है ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। तलाक के साथ साथ, हिंसा , अनावश्यक आक्षेप, बालकों की परवरिश में कमी, कानूनी दांवपेचों और न्याय व्यवस्था का दुरूपयोग और कुटुंबो के मध्य शत्रुता का भाव आदि घटनाएं बढ़ रही है।  पति पत्नी रिश्ते में सबसे जरूरी...

स्वावलंबन

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  स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के   अंतर्गत   कहावतों पर पापा   सोहन राज जी कोठारी द्वारा लिखे गए लेख द्वारा बताया गया कि स्वावलंबन व श्रम कितना जरूरी है। हम वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो इस कोरोना काल ने स्वावलंबन पर सचेत कर दिया।   वही सुखी है जो स्वाबलंबी है , अन्यथा कष्ट उठाने पड़ेंगे । इस लोकोक्ति पर उनका लिखा गया यह लेख वर्तमान में भी हमें प्रेरणा दे रहा है । -- मर्यादा कुमार कोठारी बैठक तपे जद सूत कते इस लोकोक्ति को साधारण शब्दों में भी जीवन की सफलता व श्रम का एक महत्वपूर्ण संकेत छिपा है। यह बात सही है कि पुराने जमाने में जब देश भर में गांव स्वावलंबी थे तब कपड़े की बुनाई का सारा कार्य छोटी-छोटी इकाईयों के माध्यम से गांव में ही होता था। गांव-गांव में अनेक घरों पर कार्मिक चरखा कात कर रूई से सूत के डोर बनाते , जिससे अन्य कार्मिक अपने घरों में ताना-बाना के पट लगाकर बुनाई करते , कपड़ा तैयार करते। उससे गांव की आवश्यकता पूरी हो जाती। विशिष्ट कलाविद कार्मिक इसी प्रकार रेशम व ऊन कातकर रेशमी व ऊनी कपड़ों की बुनाई करते , उस पर अपनी कलात्मकता का प्रयोग करते। जिससे ...

किरदार माता-पिता और संतान

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  स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के अंतर्गत पापा जी सोहनराज जी कोठारी ने राजस्थानी कहावत ऊपर लेख लिखें। उसी में से एक यह लेख वर्तमान संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि यह जब लिखा गया था तब भी था। आज के परिपेक्ष में हम देख रहे हैं कि जहां वृद्ध माता-पिता वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ा रहे हैं , जिन्होंने अपना पेट काटकर , कितने ही मंदिरों में मन्नत मांग कर , माथा टेक कर , अपने लिए संतान को चाहा और वह संतान अपने दायित्वों से विमुख हो जाती है पता ही नहीं चलता। यह लेख हम सबके लिए पठनीय , चिंतनीय व माननीय है। - मर्यादा कुमार कोठारी छोरू कोछोरू हवे , माईत कुमाईत नीं वे यह लोकोक्ति एक ऐसे सत्य को उद्घाटित करती है जो युगो-युगों तक स्थायित्व लिए रहा , पर लगता है कि भौतिकवादी युग की भोगलिप्सा ने इसका अर्थ बदल दिया है। राजस्थानी भाषा में ‘‘ छोरू ’’ पुत्र या लड़के को कहते है और ‘‘ माईत ’’ माता-पिता को कहते है , अतः लोकोक्ति का शब्दार्थ होता है कि पूत कपूत हो सकता है , पर माता-पिता कभी कु-माता-पिता नहीं हो सकते , अर्थात् माता-पिता , कभी अपनी संतान का अहित नहीं कर सकते। माता-पिता के शारीर...

कहते कुछ हैं करते कुछ है

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  सारी दुनिया मुंह पर मास्क लगाकर चल रही है पर कोरोना वायरस के डर से। ये देखकर कई बार यह लगता है कि पहले ही कई लोग कई मुंह लगाकर रहते आ रहे हैं। कहते कुछ हैं करते कुछ है। यह बात हर स्तर पर हर जगह पर देखने को आपको मिल सकती है। थोड़ा सा हम ध्यान लगाएं तो पता चलेगा जो मानदंड है या जो पैमाना है वह अपने लिए अलग दूसरे के लिए अलग। यह बात गले कम उतरती है लेकिन ऐसा हम सब करते हैं। मैंने जहां तक अनुभव किया है सब जगह यही चलता है जैसे मैं राजनीति की बात करूं तो राजनीति में अपनी पार्टी में कोई दूसरा  पार्टी का सदस्य आता है तो कहते हैं उसका हृदय परिवर्तन हो गया और अपनी पार्टी से कोई सदस्य जाता है तो कहा जाता है वह दलबदलू है। यह दोहरापन जो है यह हमारी दुनिया में बराबर चलता है। अब मास्क लगाने के बाद तो चेहरों का पता ही नहीं चलता। मेरे को अभी कई बार बाहर जाने का काम पड़ा तो कई लोगों ने कहा पहचाना नहीं क्योंकि चेहरे पर मास्क था। लेकिन मुझे लगता है हम तो वैसे भी कई चेहरे लगा कर चलते हैं जहां दोहरा पन में जीते हैं। ये मास्क तो बाहरी आवरण है भीतर का चेहरा  जो दोगलापन लिए है वह कैसे नजर आए। म...