किरदार माता-पिता और संतान

 

स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के अंतर्गत पापा जी सोहनराज जी कोठारी ने राजस्थानी कहावत ऊपर लेख लिखें। उसी में से एक यह लेख वर्तमान संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि यह जब लिखा गया था तब भी था। आज के परिपेक्ष में हम देख रहे हैं कि जहां वृद्ध माता-पिता वृद्धाश्रम की शोभा बढ़ा रहे हैं, जिन्होंने अपना पेट काटकर, कितने ही मंदिरों में मन्नत मांग कर, माथा टेक कर, अपने लिए संतान को चाहा और वह संतान अपने दायित्वों से विमुख हो जाती है पता ही नहीं चलता। यह लेख हम सबके लिए पठनीय, चिंतनीय व माननीय है।

- मर्यादा कुमार कोठारी

छोरू कोछोरू हवे, माईत कुमाईत नीं वे

यह लोकोक्ति एक ऐसे सत्य को उद्घाटित करती है जो युगो-युगों तक स्थायित्व लिए रहा, पर लगता है कि भौतिकवादी युग की भोगलिप्सा ने इसका अर्थ बदल दिया है। राजस्थानी भाषा में ‘‘छोरू’’ पुत्र या लड़के को कहते है और ‘‘माईत’’ माता-पिता को कहते है, अतः लोकोक्ति का शब्दार्थ होता है कि पूत कपूत हो सकता है, पर माता-पिता कभी कु-माता-पिता नहीं हो सकते, अर्थात् माता-पिता, कभी अपनी संतान का अहित नहीं कर सकते। माता-पिता के शारीरिक संयोग से, सन्तान की उत्पत्ति होती है, और उन्हें लगता है है कि उन्होंने, अपने प्रेम के फलस्वरूप एक नई संरचना की है। हर व्यक्ति को, अपनी संरचना या कृति पर आल्हाद् और गर्व की अनुभूति होना स्वाभाविक है। अतः माता-पिता अपनी संतान, चाहे जैसी भी हो, उसके पालन-पोषण में अनेक कष्ट उठाकर भी सदा प्रसन्न रहते हैं। माता, तो पुत्र को नव माह तक अपने गर्भ में रखकर अपने खून व ऊर्जा-शक्ति से, उसे मानव की सम्पूर्ण आकृति  प्रदान करती है, बीज से अंकुरित होकर उसे पौधे का रूप देती है, और अत्यन्त कष्टप्रद स्थिति में, उसे जन्म देती है और ‘‘आंचल में ही दूध और आंखें  में पानी’’ की स्थिति में, उसे बड़ा करती हैं, संस्कार प्रदान करती है और विश्व के रंगमंच पर अपनी अदा करने को तैयार करती है। इसी तरह पिता आर्थिक एवं सामाजिक संघर्षों से जूझकर भी, अपने पुत्र को सारी सुख-सुविधाएं जुटाकर शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करता है और उसे जीवन-संग्राम में सफल बनने के योग्य बनाता है। ऐसे माता-पिता से उनका पुत्र कभी उऋण नहीं हो सकता और वेदों में इसीलिए माता-पिता को ‘‘मातृदेवों भवः पितृदेवों भवः’’ से संबोधित किया गया है। लोकभाषा में भी माता की ममता को इतना महत्व देकर कहा गया है कि ‘‘जीमणों मा रे हाथ सूं, वो भलांई जहर ही’’ अर्थात् माता अगर जहर भी खिलाए तो भी उसके हाथ ले लेना चाहिए  क्योंकि किसी स्थिति में भी वह अपने पुत्र का अहित करने का विचार तक नहीं कर सकती। पुत्र द्वारा प्रताड़ित होने या प्रतिकूल स्थितियां पैदा करने के उपरांत भी माता की ममता व पिता के प्यार के अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते है जिसमें कुछ घटना प्रसंग तो बहुत ही विश्रुत है।

एक नवयुवक एक युवती से प्रेम में आसक्त हो गया। युवती निपुण थी, उसने युवक के प्रेम की प्रगाढ़ता की थाह लेनी चाही। युवक ने जब उससे परिणय की याचना की, तो युवती ने कहा, ‘‘तुम अपनी मा का कलेजा लाकर भेंट कर सको, तो तुमसे परिणय सम्बन्ध किया जा सकता है। इसमें तनिक भी विलम्ब नहीं होना चाहिए।’’ वासनापूर्ण प्रेम के आवेग में उन्मत इतना बेभान हो गया, कि उसने अपने घर जाकर, अपनी मां की हत्या कर दी व उसका हृदय निकाल कर एक थाली में सजा उसे अपनी प्रेयसी को भेंट देने चल पड़ा। आंखों पर प्रेमासक्ति का इतना आवरण छा गया, कि शीघ्र पहुंचने की लालसा में, उसका अपनी चाल पर नियंत्रण नहीं रह सका और मार्ग में ठोकर खाकर गिर पड़ा। जैसे ही वह सड़क पर गिरा कि थाल के अन्दर ढका हुआ मां का हृदय बोल उठा, ‘‘वत्स! तेरे कहीं चोट तो नहीं आई।’’ आवाज सुनकर युवक चौंका, और इसके पूर्व कि, वह यह जान पाता कि आवाज कहां से आ रही है, उसके हाथ में वापस थाली पकड़ते ही मां का हृदय  फिर बोल उठा, ‘‘लाडले! गिरने से तेरे घुटने तो नहीं छिल गए, पैर में मोच तो नहीं आ गई?’’ अपनी मां की प्रत्यक्ष स्पष्ट आवाज कान में पड़ते ही युवक का विवेक जागा और उसे अपने कृत्य पर घोर ग्लानि हुई। उसकी प्रेयसी ने भी उसके ऐसे जघन्य दुष्कृत्य पर उसकी भर्त्सना की। चाहे जो हो, ऐसा होता है मां का हृदय।

 


मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बसार की महारानी चेलना गर्भवती हुई और उसके मन में श्रेणिक राजा के कलेजे का मांस  पकाकर खाने का दोहद उत्पन्न हुआ। रानी का मन व्यथित हो गया और दोहद पूरा न होने से वह चिंतातुर होकर, दुर्बल हो गई। राजा के बार-बार आग्रह-पूर्वक पूछने पर, उसने सखेद अपने दोहद की बात बता दी। महामंत्री अभयकुमार ने अपनी विलक्षण बुद्धिकौशल से, राजा के कलेजे के स्थान पर हरिण का मांस बांधकर, रानी के सामने उसे काटा और पकाकर रानी को खिलाया व उसके चित्त का समाधान दिया। समय पर पुत्र का जन्म हुआ। रानी ने पुत्र को पितृघाती समझकर महल के बाहर गंदी ऊखरड़ी पर फिंकवा दिया। संयोग से उसी दिन राजा श्रेणिक उधर से निकले, और उन्होंने एक सुंदर नवजात, कोमल बालक का क्रंदन सुना। उन्होंने बालक को मंगवाकर उसके सम्बंध में जानकारी की, तो सारा रहस्य खुल गया। राजा ने रानी की निर्ममता पर, उसे उलाहना दिया व उसकी आशंका को निर्मूल बताया। ऊखरड़ी पर पड़े बालक के हाथ की अंगुलियों की भण्डसूरे, मुर्गे आदि जानवरों ने काट खाया था, और उसमें पीब हो गई थी। राजा ने कई दिनों तक, बालक के उपचार की व्यवस्था की व स्वयं अपने मुंह से, उसके हाथों की पीब को, चूस-चूस कर वह अग्लान भाव से, उसे थूकता रहा। मगध साम्राज्य के शक्तिशाली समा्रट बिम्बसार की पुत्र के प्रति ममता का, यह विरल उदाहरण है। आगे चलकर उसी पुत्र अजातशत्रु कोणिक ने बिम्बसार को कारावास में डाला, राज्य से च्युत किया व उसी के कारण बिम्बसार को आत्मघात करनी पड़ी। पुत्र कुपुत्र हो गया पर पिता की ममता अविचल रही। युगों-युगों से माता-पिता के प्रेम और वात्सल्य भाव के ऐसे अनेकों उदाहरण चर्चित हैं।

पर लगता है कि, आज की भौतिकता से परिपूर्ण भोगवादी संस्कृति ने, पुत्र के प्रति प्रेम और वात्सल्य भाव को सदा-सदा के लिए न केवल संदिग्ध बना दिया है, अपितु उसको कलंकित कर दिया है। आज अनेक देशों में गर्भपात को वैध मान लिया गया है, भारत जैसे तथाकथित धर्म-परायण देश में, सहस्त्रों ललनांए निसंकोच भ्रूणहत्या करने को लालायित रहती है। क्षणिक देहसुख के आवेश में पुरूष से अवैध संबंध करते हुए, अनेक पढ़ी-लिखी, दिखने में सुसभ्य व सुसंस्कृत महिलाएं ऐसा करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती और जब उसके परिणामस्वरूप गर्भ में  जीवन की उत्पत्ति हो जाती है तो उसका नाश करने में भी उनकी संवेदना को तनिक भी झटका नहीं लगता। अनेक सुसंपन्न परिवार की महिलाएं सोनोग्राफी की वैज्ञानिक तकनीक से अपने गर्भ में पल रहे भू्रण के लिंग का पता लगाकर, यदि वह वालिका है, तो उसे नष्ट करा देती हैं। ममता व करूणा की युगों-युगों तक साक्षात् प्रतिमा कहलाने वाली भारतीय नारी, अपने पेट में पलते अपनी ही संरचना को, किस क्रुरता व निर्ममता से मसल डालती है, यह जानकर सामान्य जन आज भी रोमांचित हो उठता है। आज समाज में ऐसे पिता के अनगिनत उदाहरण है, जिसकी पहली पत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर, वह दूसरा विवाह कर लेता है, फिर वही पिता, जो पहले अपनी पहली पत्नी के संतानों को असीम प्यार लुटाता था, दूसरी पत्नी के आने व उससे संतान पैदा होने पर, उस संतानों के प्रति घोर निष्ठुर हो जाता है पहली पत्नी की संताने वांछित प्यार के अभाव में, त्रासदी भरा जीवन जीने के लिए विवश हो जाती है, और उनका विद्रोही मन, जब स्वच्छंद व उच्छृंखल हो जाता है, तो वे समाज में कुण्ठा व घुटन भरे वातावरण का निर्माण कर सबके लिए दारूण दुःख का कारण बन जाते है। वैसे भी उपभोक्ता संस्कृति के फलस्वरूप अपनी इच्छाओं की संपूर्ति में बाधक जानकर माता-पिता अपने अपरिपक्व संतानों को, अपने जीवन की राह स्वयं चुनने व जीवीकोपार्जन करने के लिए, अपने से अलग कर, खुला छोड़ देते हैं और फिर जीवन भर उनकी सुधि नहीं लेते। पाश्चात्य देशों में वह परम्परा सामान्य हो गई है व इस देश में भी इसका प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहा है। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी के शब्दों में संस्कारहीनता का चित्र इस प्रकार है-

‘‘तिफल में आए भी कैसे एतवार माई-बाप की

दूध डिब्बे का पिया, तालीम है सरकार की’’

आज की शिक्षित व उच्च सरकारी पदों पर आसीन अथवा सुसम्पन्न घरों की महिलाएं अपने दैहिक सौन्दर्य की अतिरिक्त चिंता में, न तो बच्चों को स्तनपान ही कराना श्रेय समझती है, न उनका लालन-पालन, अपने हाथों से करना ही अपनी शान के अनरूप मानती है। इस वातावरण में लगता है, कि माता-पिता जानबूझ कर, अपने स्नेह व ममता के स्रोतों को सूखाने में लगे हुए हैं और अब उपरोक्त लोकोक्ति अधिक सार्थक या प्रासंगिक नहीं रह गई है। माता-पिता व पुत्र  के बीच स्नेह और सम्मान भावना लगभग तिरोहित हो चुकी है।, और उसी का परिणाम है समाज में व्याप्त अनुनशासनहीनता व चारित्रिक ह्रास।

- श्री सोहनराज जी कोठारी 

(तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश)


Comments

  1. पदार्थवादी युग मे, चहुँ और पदार्थ का बोलबाला है। ऐसे में सभी तरह के रिश्ते तार तार हो रहे हैं। रिश्तों मे भी स्वार्थ का वर्चस्व है। इस अन्धी दौड़ में हम सब बिना कोई लक्ष्य निर्धारित किये एक दूसरे की देखा देखी भरपूर पदार्थ हासिल करने में जुटे हुए हैं। देव, गुरु, धर्म हम सबको सद्बुद्धि देवे एवं हमे मर्यादाजी जैसे प्रबुद्ध चिन्तक सदैव नए नए आलेखों के द्वारा अपना मार्गदर्शन प्रदान करते रहें।
    मंगलकामना

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    1. आभार, सुबोध भाई। हम इन विचारों से प्रेरणा लेकर जीवन की सार्थकता की ओर आगे बढ़े।

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  2. बहुत ही सटीक विश्लेषण आज के पदार्थवादी संस्कृति का।

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  3. जब वह लड़का अपनी माँ का सिर लेकर अपनी प्रेमिका के पास जाता हैं तो प्रेमिका कहती हैं पगले तू अपनी माँ का नहीं तो मेरा कैसे हो सकता है ।विनाश काले विपरीत बुद्धि ।

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