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आचार्य श्री भिक्षु : विचार-दर्शन और अणुव्रत के निदेशक तत्व

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  आचार्य श्री भिक्षु : विचार-दर्शन और अणुव्रत के निदेशक तत्व तेरापंथ का प्रवर्तन और भिक्षु दर्शन तेरापंथ की स्थापना आचार्य श्री भिक्षु द्वारा विक्रम संवत् 1817 में हुई। वे भगवान महावीर के सत्य स्वरूप के निष्कपट उद्घोषक और अहिंसा के महाभाष्यकार थे। उस समय की रूढ़ धारणाओं से हटकर उन्होंने भगवान की वाणी का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया। इसी कारण उनके विचारों को भिक्षु दर्शन अथवा तेरापंथ दर्शन कहा गया। अणुव्रत आंदोलन : भिक्षु दर्शन की युगानुकूल अभिव्यक्ति आचार्य श्री भिक्षु के नवमे पट्टधर आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से संयम, नैतिकता और व्यवहार शुद्धि का संदेश समाज तक पहुँचाया। वस्तुतः अणुव्रत के निदेशक तत्व आचार्य भिक्षु के विचारों का ही युगानुकूल प्रस्तुतीकरण हैं। आचार्य तुलसी ने भिक्षु स्वामी की वाणी को आधुनिक भाषा और संदर्भ में अभिव्यक्त कर दिया। अणुव्रत के निदेशक तत्व और आचार्य भिक्षु का दर्शन १. दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता   अणुव्रत दर्शन का प्रथम निदेशक तत्व है — दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता। आचार्य भिक्षु ने स्पष्ट कहा कि बड़े ज...

कर्मवाद - जैन दर्शन परिप्रेक्ष्य

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  कर्म हमारे अतीत का लेखा-जोखा है। विश्व के प्रत्येक धर्म में अच्छे बुरे कर्म की अवधारणा है। आध्यात्मिक साधना एवम उसके ज्ञान की व्याख्या कर्म शास्त्र को जाने बिना नहीं की जा सकती। कर्मवाद हमारे कृत कार्यों-आचरण की मीमांसा करता है। बाहरी एवम् भीतरी कारकों से हमारे सभी कार्य प्रभावित होते है। बाहरी कारण स्पष्ट दृष्टि गोचर है एवम् भीतरी दिखाई तो नहीं देते लेकिन व्यक्ति के आचरण पर गहरा प्रभाव डालते हैं। कर्मशास्त्र मन की इन गहनतम अवस्थाओं की खोज का अध्ययन है। वैदिक मान्यता है जीवात्मा कर्म करने को स्वतंत्र है। सृष्टि के नियंता /भगवान की न्याय- वयवस्था में अच्छे-बुरे कर्मो का फल भोगना पड़ता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य अपने कुकर्मों के लिये स्वयं उत्तरदाई इसलिए है क्योंकि उन्हें करने या न करने का निर्णय अल्लाह मनुष्य को स्वयं ही लेने देता है। उसके कुकर्मों का भी पूर्व ज्ञान खुदा को होता है। ईसाई , बौद्ध आदि सभी धर्मो में कर्म एवम् कर्म सिद्धांत की मान्यता है। १) जैन दर्शन मतानुसार सबसे प्रथम हम यह देखेंगे कर्म है क्या ? भगवान महावीर ने स्पष्टत "कर्म को पुदगल" ( matter/ पर...

गुरु-शिष्य-महातम्य

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तेरापंथ समाज के 157 में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गुरु के महत्व को बताने वाला यह पापा जी श्री सोहनराज जी कोठारी ( तेरापंथ प्रवक्ता , शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश) का लेख प्रासंगिक है। हमें गुरु के महत्व समझकर उनका मान बढ़ाना है। गुरु ही हमें सही रास्ता दिखाने वाले हैं । गुरु से ही हमें ज्ञान मिलता है। ज्ञान से हमारी श्रद्धा , आस्था व समर्पण बढ़ता है। वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण जी को प्रणाम करते हुए मैं गुरुओं को पापा जी का यह लेख समर्पित करता हूं। - मर्यादा कुमार कोठारी 18.02.2021 (1) गुरू बिन ज्ञान नहीं (2) साधक सिद्ध ने पूजावे पुरातन धर्मग्रंथ ऋग्वेद में गुरू को माता-पिता की तरह ही पूजनीय बताया है और उसके लिए ‘‘ गुरूदेवोभवः ’’ कहकर अर्भ्यथना की गई है। पौराणिक ग्रंथों में तो ‘‘ गुरू ब्रह्मा , गुरू विष्णु ’’ कहकर उसकी तुलना सृष्टिसृजक ‘‘ ब्रह्मा ’’ या सृष्टि के पालनपोषणकर्ता ‘‘ विष्णु ’’ से की गई है। सामान्य बोलचाल की भाषा में गुरू के लिए ‘‘ गुरूदेव ’’ संबोधन प्रचलित है , जिससे भी स्पष्ट है कि गुरू से देवत्व का दर्शन होता है। जैनधर्म में तो गुरू यानी आचार्य उपाध्याय , ...