गुरु-शिष्य-महातम्य

तेरापंथ समाज के 157 में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गुरु के महत्व को बताने वाला यह पापा जी श्री सोहनराज जी कोठारी (तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश) का लेख प्रासंगिक है। हमें गुरु के महत्व समझकर उनका मान बढ़ाना है। गुरु ही हमें सही रास्ता दिखाने वाले हैं । गुरु से ही हमें ज्ञान मिलता है। ज्ञान से हमारी श्रद्धा, आस्था व समर्पण बढ़ता है। वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण जी को प्रणाम करते हुए मैं गुरुओं को पापा जी का यह लेख समर्पित करता हूं।

- मर्यादा कुमार कोठारी 18.02.2021


(1) गुरू बिन ज्ञान नहीं

(2) साधक सिद्ध ने पूजावे

पुरातन धर्मग्रंथ ऋग्वेद में गुरू को माता-पिता की तरह ही पूजनीय बताया है और उसके लिए ‘‘गुरूदेवोभवः’’ कहकर अर्भ्यथना की गई है। पौराणिक ग्रंथों में तो ‘‘गुरू ब्रह्मा, गुरू विष्णु’’ कहकर उसकी तुलना सृष्टिसृजक ‘‘ब्रह्मा’’ या सृष्टि के पालनपोषणकर्ता ‘‘विष्णु’’ से की गई है। सामान्य बोलचाल की भाषा में गुरू के लिए ‘‘गुरूदेव’’ संबोधन प्रचलित है, जिससे भी स्पष्ट है कि गुरू से देवत्व का दर्शन होता है। जैनधर्म में तो गुरू यानी आचार्य उपाध्याय,  साधु को पंचपरमेष्ठि में समाहित किया गया है, जिसका अर्थ है कि उनमें परमेश्वर की सत्ता जीवंतता के साथ प्रतिभासित होती है। इतनाही नहीं, नमस्कार महामंत्र में अष्टकर्मों का क्षय कर सर्वथा मुक्त होने वाले एवं  आत्मा की संपूर्ण सिद्धि प्राप्त करने वाले सिद्धों से पूर्व, उनकी साधना का उपदेश देने व अभ्यास करने वाले अरिहंतो को पहले नमस्कार दिया गया है। हमारे आप्तपुरूषों को इस बात का ध्यान होते हुए कि अभी अरिहंत पूर्णतया सिद्धि प्राप्त नहीं कर सके हैं उनके चार कर्मों का बंधन अभी शेष है, वे स्वयं सिद्धावस्था प्राप्त करने हेतु अपनी साधना के पद पर चल रहे हैं, उन्होंने अरिहंतों को सर्वप्रथम नमस्कार इसलिए किया, कि सारे जग को सिद्धि प्राप्त करने की वे प्रेरणा देते है, लोगों को कल्याण का मार्ग बता रहे है। उनके माध्यम से ही सिद्धों को पहचाना एवं जाना जा सकता है। अतः वे सर्वप्रथम वंदनीय है। आज भरत क्षेत्र में अरिहंत नहीं है, इस दृष्टि से अरिंहत के प्रतिनिधि स्वरूप आचार्य की अभ्यर्थना सर्वप्रथम की जाती है। प्रज्ञापर्व के अलौकिक अवसर पर प्रज्ञा प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञ अपना प्रवचन प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम ‘‘नमो आयरियाणं’’ (आचार्य को नमस्कार) का घोष करते और उसके बाद वे नमस्कार मंत्र का पूरा पाठ कर अर्हत्वाणी का विस्तार से विश्लेक्षण करते थे। प्रारंभ में ही उन्होंने लोगों की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा था, कि जिस प्रकार सिद्ध सबसे श्रेष्ठ होते हुए भी उनके महातम्य को अरिहंत बताते है, अतः उन्हें प्रथम नमस्कार किया जाता है, उसी प्रकार वर्तमान समय में, जब अरिहंत यहां नहीं है, तब आचार्य ही अरिहंत व सिद्धपुरूषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का दिग्दर्शन कराते हैं, इसलिए आचार्य को नमस्कार सर्वप्रथम करना ही श्रेय है।

आज से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व इस देश के महान् निस्पृह और आत्मचेता महात्मा कबीर ने भी गुरू की महत्ता प्रकट करते हुए कहा था- ‘‘गुरू-गोविंद दोनों खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरूदेव की, गोविंद दिया बताय।।’’ अर्थात् गुरू और भगवान दोनों साथ-साथ खड़े हो तो पहले गुरू का चरण-स्पर्श करना चाहिए, क्योंकि गुरू नहीं होते तो भगवान् का परिचय कौन देता? इस पद से भी यह परिलक्षित होता है कि गुरू का भगवान् से भी कतिपय अंशों में अधिक महत्व है। गुरू वह दिशादर्शक यंत्र है जो सदासर्वदा भगवान् की ओर संकेत देता रहता है।

महामनस्वी आचार्य कालूगणीजी अपने शिष्यों को सदा उद्बोधित करते रहते थे- ‘‘गुरू डर, हरि डर, गांव डर’’ यानि गुरू से डरो, परमात्मा से डरो, जनता से डरो। यहां डरने का अर्थ भय से नहीं है, आत्मा-नियंत्रण व अनुशासन से है। भगवान् की सार्वकालिक आत्मसत्ता व जनता के संपूर्ण विश्वास प्राप्त करने की साधना में उनसे नियंत्रित होने से पूर्व, गुरू के आज्ञा एवं अनुशासन में नियंत्रित रहो, ताकि जनता की श्रद्धा प्राप्त कर सको, भगवान की निष्पति मिल सके। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है, ‘‘गुरू बिना ज्ञान नहीं।’’ भगवान् व धार्मिक जगत् के बीच ‘‘गुरू’’ ही एक ऐसी सेतु शक्ति है जो व्यक्ति को अपनी अध्यात्म ऊर्जा से आप्लावित कर भगवान् बना सकती है।

 

भाषा शब्दकोश में भी ‘‘गुरू’’ का अर्थ बड़े से व ‘‘लघु’’ का अर्थ छोटे से है। साधारणतया जो भी व्यक्ति किसी को ज्ञान की दृष्टि से जो कुछ देता है, वह गुरू कहलाता है और इस दृष्टि से विद्या-गुरू, शिक्षा गुरू, इसी श्रेणी में आते है पर उन्हें केवल ‘‘शिक्षक’’ संबोधन देकर ही पुकारा जा सकता है व गुरू शब्द उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार सभी प्रकार के ज्ञान में ‘‘केवलज्ञान’’ उसी को कहा जाता है, जहां व्यक्ति साधना के बल पर समत्व बोध के संस्कार, प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार ‘‘गुरू’’ शब्द के नाना विशेषणों को छोड़कर केवल ‘‘गुरू’’ उसी को कहा जाता है, जो अपने ज्ञान और आचरण के आधार पर  आत्मा की अनंत शक्ति को जान लेता है, अनुभूत कर लेता है। ऐसा गुरू ही वस्तुतः व्यक्ति के सारे दुःखों व त्रासदी का मूलोच्छेद कर उसे बंधनमुक्त करने में सहायक  हो सकता है। शिक्षक के पास प्रत्येक विषय की इकत्रित सूचनाओं की निधि है, जिससे वह अपने छात्रों को, फोटोग्राफर के कैमरे की तरह, से एक ही प्रकार छायाचित्र सभी को उपलब्ध करा सकता है पर गुरू के पास व्यक्ति के अस्तित्व व उसकी बंधनमुक्ति के विषय में प्राप्त किये हुए अनुभूतियों का वह  अक्षय कोष है, जो अपने शिष्यों को जागृत कर उन अनुभूतियों के, प्रकाश में, स्वयं को देखने, जानने व प्राप्त करने का अवसर देता है। एक  में जहां मात्र शब्द, तर्क विश्लेषण व बुद्धि चातुर्य है, वहां दूसरे में अनुभूति चेतना, समग्रता व आत्मोन्मुखता है, जो यथार्थ में परमात्मा, सत्य व मोक्ष से साक्षात्कार कराने की दिशा देते हैं। ऐसे गुरू की व्याख्या युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी में निम्नलिखित पदों में बहुत गहनता के साथ इस प्रकार की है-

‘‘सदा लाभ और अलाभ में, सुख-दुःख में मध्यस्थ है।

शांतिमय, वैराग्यमय, आनंदमय, आत्मस्थ है।।

वासना से विरत आकृति, सहज परम प्रसन्न है।

साधना  धन साधु अंतर भाव में आसन्न है।।

इस प्रकार के गुरू,  जिन्हें हम साधु, सन्यासी, महात्मा मुनि, संत आदि किसी नाम से पुकारें, वे हमारे लिए वंदनीय, अभिनंदनीय हैं और उनसे हमको जीवन ऊर्जा प्राप्त हो सकती है। इनमें से भी जो मन, वचन, शरीर से एकन्सा सम्यक् आचरण रखकर जनता को अध्यात्म की प्रेरणा देने में अपना पूरा श्रम व समय लगाता है, वे आचार्य या धर्मगुरू कहलाते है।

गुरू के महातम्य में एक और बात ध्यान रखने योग्य है। हर गुरू  की प्रख्याति व प्रसंगिकता ऐसे शिष्य पर प्रवलंबित होती है जो उनकी वाणी व निर्देंशों को पूरी तरह आत्मसात् कर गुरू की अनुभूति को जनता के समक्ष सही तौर से अभिव्यक्त कर सके। शिष्य ऐसा हो जो विनयशील हो, गुरू के प्रति सर्वथा समर्पित हो। शिष्य द्वारा गुरू को किए जाने वाले साष्टांग प्रणाम का यही महत्व है कि गुरू के पैरों की अंगुलियों से  विकिरण होने वाली उसकी ऊर्जा शिष्य के, उनके चरणों में झुके मस्तिष्क में, आसानी से प्रवेश हो सके। जब गुरू आशीर्वाद की मुद्रा में उसके सिर पर हाथ रखे तब हाथों की अंगुलियों से प्रवाहित गुरू की ऊर्जा संपूर्णतः शिष्य के मन-मस्तिष्क  में समाहित हो सके। इतिहास में अनेक उदाहरण मौजूद है जहां गुरू ने शिष्य में अपनी समस्त ऊर्जा उड़ेलकर अपने तुल्य बना दिया। परमहंस रामकृष्ण ने भगवद् सत्ता को अनुभूत किया व उसका शक्तिपात् अपने योग्य  शिष्य विवेकानंद में करके उसे सारे विश्व के सामने उस दिव्यशक्ति को अभिव्यक्त करने की शक्ति प्रदान की। महावीर-गौतम, बुद्ध-आनंद, कृष्ण-अर्जुन, राम-हनुमान, भिक्षु - भारीमाल, तुलसी - महाप्रज्ञ - महाश्रमण आदि इस बात के जीते-जागते उदाहरण है। गुरू नानकदेव पर्यंत गुरू गोविंदसिंह दसों गुरूओं ने उनकी ऊर्जाशक्ति ग्रहण करने वालो को ‘‘शिष्य’’ कहना प्रारंभ किया जा शब्द पंजाबी भाषा में ‘‘सिक्ख’’ बनकर गुरूवाणी के प्रति श्रद्धा रखने वालो के एक समुदाय रूप में मुखर बन गया। जैन धर्म में भी साधु के साथ ‘‘श्रावक’’ शब्द उसी प्रकार से प्रयोग में ओने लग गया। श्रावक का सीधा सा-अर्थ है श्रवण करने वाला। जो व्यक्ति साधु-महात्माओं की वाणी को सुनकर, हृदयंगम कर, अपनी आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चरित्र से भावित करने की साधना में जुट जाता है, वही सच्चा श्रावक है। राजस्थान में एक लोकोक्ति है कि ‘‘साधक सिद्ध को पूजाता है’’ जिसका अभिप्राय यही है जिस गुरू के शिष्य तेजस्वी, प्रज्ञावान् एवं चरित्रनिष्ठ होंगे, उससे स्वतः ही गुरू की गरिमा बढ़ जाएगी। इस विवेचन से स्पष्ट है कि गुरू-शिष्य एक-दुसरे के पूरक है। आध्यात्म जगत् में उनका योग सारे परिपार्श्व के वातावरण को शांत, सुखद एवं पवित्र बना सकता है। इसी में ‘‘गुरू बिना ज्ञान नहीं’’ अथवा ‘‘साधक सिद्ध ने पूजावे’’ लोकोक्तियों की सार्थकता व गुणवत्ता निहित है।

 

- श्री सोहनराज जी कोठारी 

(तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश)

Comments

  1. हे प्रभु यह तेरापंथ

    ReplyDelete
  2. गुरु बिना ज्ञान अधूरा है हमेशा गुरु का सम्मान करें

    ReplyDelete
  3. 💯 true * Today'yesterday ,n tomorrow

    ReplyDelete
  4. गुरुत्व के प्रति हमारे कर्तव्य ओर आस्था को बोध कराने वाला अति उत्तम लेख

    ReplyDelete
  5. पढ़ाता प्रेम का जो पाठ है उस पंथ की जय हो,,,,
    बताता सत्य की जो राह है उस ग्रंथ की जय हो,,,,
    अहिंसा और अनुव्रत का संदेशा दे रहा जग को,,,,,,, अहिंसा सत्य के उस पंथ, "तेरापंथ" की जय हो बहुत ही सार गर्भित आलेख,,, 🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  6. हर दृष्टि से गुरु की महिमा को सिद्ध करता हुआ यह आलेख गुरु के प्रति
    आदरनीय जजसाहब की अनन्य श्रद्धा और विनम्रता को प्रकट कर रहा है।

    गुरुदेवेभ्यो नमो नम:
    🙏🙏

    ReplyDelete
  7. ‘‘नमो आयरियाणं’’

    ReplyDelete
  8. हमने स्कुल के दिनों में पढ़ा वह दोहा याद आ रहा है " गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवों महेश्वरा
    गुरुर साक्षात पर ब्रह्मां तस्मै श्री गुरुवे नम"
    गुरु का स्थान अपने जीवन निर्माण में क्या है गुरु का महत्व क्या है यह इस लेख से प्रतिलक्षित सोतों है ।लेखक की लेखनी को शत् शत् वंदन ।

    ReplyDelete
  9. मन को छू लेने वाला दिल की गहराइयो से गुरु भक्ति
    नमन सत सत नमन

    ReplyDelete
  10. गुरु के महत्त्व का सही मायने में निरूपण करने वाला सारगर्भित संदेश से संयुत इस प्रेरक निधि हेतु लेखक को नमन पुनर्प्रकाशित करने वाले भाई मर्यादा जी का साधुवाद👍

    ReplyDelete
  11. गुरु दृष्टि में ही सृष्टि है

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जिंदगी चलती रहे - यौवन बढ़ता चले

हे प्रभु यह तेरापंथ -1