कर्मवाद - जैन दर्शन परिप्रेक्ष्य


 

कर्म हमारे अतीत का लेखा-जोखा है। विश्व के प्रत्येक धर्म में अच्छे बुरे कर्म की अवधारणा है। आध्यात्मिक साधना एवम उसके ज्ञान की व्याख्या कर्म शास्त्र को जाने बिना नहीं की जा सकती। कर्मवाद हमारे कृत कार्यों-आचरण की मीमांसा करता है। बाहरी एवम् भीतरी कारकों से हमारे सभी कार्य प्रभावित होते है। बाहरी कारण स्पष्ट दृष्टि गोचर है एवम् भीतरी दिखाई तो नहीं देते लेकिन व्यक्ति के आचरण पर गहरा प्रभाव डालते हैं। कर्मशास्त्र मन की इन गहनतम अवस्थाओं की खोज का अध्ययन है।

वैदिक मान्यता है जीवात्मा कर्म करने को स्वतंत्र है। सृष्टि के नियंता /भगवान की न्याय- वयवस्था में अच्छे-बुरे कर्मो का फल भोगना पड़ता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य अपने कुकर्मों के लिये स्वयं उत्तरदाई इसलिए है क्योंकि उन्हें करने या न करने का निर्णय अल्लाह मनुष्य को स्वयं ही लेने देता है। उसके कुकर्मों का भी पूर्व ज्ञान खुदा को होता है। ईसाई, बौद्ध आदि सभी धर्मो में कर्म एवम् कर्म सिद्धांत की मान्यता है।

१) जैन दर्शन मतानुसार सबसे प्रथम हम यह देखेंगे कर्म है क्या? भगवान महावीर ने स्पष्टत "कर्म को पुदगल" (matter/परमाणु) माना. पुद्गल का अर्थ है" वह द्रव्य जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण होता है"। ये सूक्ष्म एवम् स्थूल दो प्रकार के होते है। कर्म के पुदगल सूक्ष्म है एवम् चार स्पर्शी "शीत-उष्ण-स्निग्ध एवम् रुक्ष" है। जैन दर्शन अनुसार कर्म न तो वासना है, न संस्कार, न स्मृति और न ही धारणा, ये सब तो ज्ञान के क्रम है। हम जिस भौतिक जगत में रहते है, वह त्रियामी है यानी कि प्रत्येक वस्तु जो इस जगत में है, उसके तीन आयाम होते हैं लंबाई चौड़ाई एवं ऊंचाई या गहराई। अध्यात्म की दुनिया पांच आयामों की दुनिया है चौथा आयाम है "अदृश्य" एवं पांचवा आयाम है "अमूर्त"। चौथे एवं पांचवें आयाम को हम देख नहीं सकते, माप नहीं सकते, लेकिन अतींद्रिय शक्तियों के द्वारा अनुभव किया जा सकता है। इस अमूर्त का संबंध हमारे कर्म से हैं। कर्म अचेतन है, जड़ है।

२) यक्ष प्रश्न यह है कि ये कर्म आत्मा से संबंध जोड़ते कैसे है? भगवान महावीर ने बताया दो स्थानों से आत्मा, राग एवम् द्वेष से , कर्म के साथ संबंध जोड़ती हैं। जब तक हमारे कार्यों की (वासना, संस्कार, स्मृति, धारणा) पृष्ठ भूमि में राग या द्वेष नहीं होगा, कर्म का जीवात्मा के साथ संबंध स्थापित नहीं होगा। ये राग एवम् द्वेष है क्या? ये है प्रीतिकर एवम् अ-प्रीतिकर संवेदनाएं। हमारे सभी कार्य, हमारी सभी अनुभूतियां, हमारी सभी संवेदनाएं इन दोनो से ही संबंधित होती है। प्रीतिकर एवम् अ-प्रीतिकर अनुभूति सापेक्ष है। जो वस्तु/कार्य एक को प्रिय होता है, संभवत दूसरे को अप्रिय हो सकती हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, शोक, घृणा, हास्य ये सभी इन दोनों अनुभूतियों का विस्तार है। क्रोध एकमात्र संवेदन है जिसका संबंध द्वेष से है, अप्रियता से है। बाकी सभी संवेदनाएं सापेक्ष है। रागात्मक एवम् द्वेषत्मक चेतना कर्म पुद्गलो को आकृष्ट करती हैं, संबंध स्थापित करती हैं। राग-द्वेष के आधार पर कर्मों का प्रवेश एवम् कर्मों के आधार पर राग-द्वेष का जीवित रहना, ये एक चक्र है, वलय है, इस चक्र को भेदना ही वीतारगता है।

३) कर्म को स्थूल रूप से दो भाग में विभाजित किया गया है, भाव कर्म एवम् द्रव्य कर्म। भावकर्म यानी की कर्म का चित्त। द्रव्य कर्म, भाव कर्म का शारीरिक आकार (कर्म)। द्रव्य कर्म भावकर्म का प्रतिबिंब है। चित्त का जैसा निर्माण होता है, वैसे ही पुदगल का निर्माण होता है। आत्मा भावकर्म (आश्रव) के माध्यम से कर्म पुदगलो को आकर्षित करती है (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग)। हमारा सबसे अधिक ध्यान होना चाहिए "भावकर्म" पर, क्योंकि राग-द्वेष का प्रत्येक क्षण कर्मबंध का क्षण है। राग-द्वेष के क्षण हिंसा, असत्य, अब्रह्मचार्य, परिग्रह के क्षण है, यही क्षण समूची कर्म वर्गणाओं को आकर्षित करने का क्षण है। इसी कारण से जैन धर्म में भाव विशुद्धि पर अत्यधिक महत्व है। जितने तीव्र राग-द्वेष के आवेग होंगे, कर्म बंध उतना ही प्रगाढ़ होगा।

४)  कर्म के आठ प्रकार है, जिन्हें दो भागो में बाटा गया है,

अ- घाती कर्म - जो कर्म आत्मा की मूल प्रकृति पर घात करे, चोट पहुंचाए, उसे आवृत्त कर दे। आत्मा का मौलिक स्वरूप है - ज्ञान, दर्शन, आनंद एवम् शक्ति। ये कर्म चार प्रकार के है,

१अ) ज्ञानावरणीय - इस कर्म से आत्मा के ज्ञान गुण पर आवरण आ जाता है, जैसे सूर्य का बादलों मे ढंक जाना।

२अ) दर्शनावरणीय - इस कर्म से आत्मा की दर्शन शक्ति पर पर्दा आ जाता है, जैसे चपरासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।

३अ) मोहनीय - ये कर्म आत्मा के सम्यक्त्व व चारित्र गुणों का घात करता है, नशीले पदार्थ के सेवन से जैसे व्यक्ति विवेक एवम् समझ खो देता है।

४अ) अंतराय - वह कर्म जिससे आत्मा की लब्धि/शक्ति में विघ्न पड़े, जैसे राजा का खजांची, बिना उसकी मर्जी के, राजा की आज्ञा से भी काम नहीं बनता।

ब) अघाती कर्म - जो कर्म आत्मा के गुणों को सीधे घात करने कि शक्ति नहीं रखते, किन्तु घातिया कर्मों के सहायक हैं। ये भी चार प्रकार के है,

१ब) वेदनीय - जिस कर्म  से आत्मा वेदना अर्थात सुख-दुःख/साता-असाता का अनुभव करते हैं, जैसे शहद लिपटी हुई तलवार।

२ब) आयुष्य - जिस कर्म से जीव किसी एक शरीर में निश्चित अवधि/समय तक रुका रहता है,

जैसे कारागृह में बंद कैदी।

३ब) नाम - जिस कर्म से आत्मा मूर्त होकर शुभ-अशुभ शरीर धारण करें, अलग-अलग प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं। जैसे चित्रकार के बनाए रंग-बिरंगे अलग-अलग  चित्र।

४ब) गोत्र - वह कर्म जिससे आत्मा को ऊंची-नीची अवस्था मिले। जैसे कुंभकार एक जैसी मिट्टी से छोटे-बड़े घड़े बनाता है।

५) मोहनीय कर्म को सब कर्मो का राजा/सेनापति/सबसे प्रमुख माना गया है। हमारे जीवन को सबसे अधिक प्रभावित करता है "मोहकर्म"। इस कर्म के कारण से, जानते हुए भी, देखते हुए भी, शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग करते हुए भी, सही-सही आचरण नहीं कर पाते हैं। दृष्टि एवम् आचरण में विकार, मोह कर्म उत्पन्न करता है। जैसे सेनापति के मर जाने पर सेना भाग जाती है, वैसे ही मोह कर्म के नष्ट हो जाने पर शेष सारे कर्म टूट जाते हैं। अहंकार और ममकार ये दोनो भाव मोह को पोषण देने वाले है।

६) भगवान महावीर ने कर्म बंध के साथ कर्म मुक्ति के उपाय भी स्पष्ट किए हैं। ये आवश्यक नहीं है कर्म फल भोगना ही पड़े। जीवात्मा अपने पुरुषार्थ से कर्म फल को बदल सकती है, कम कर सकती है, निष्प्रभावी कर सकती है। कर्म मुक्ति के हेतु है-संवर और निर्जरा, ये हमे प्राप्त होते है तप एवम् संयम से।

६अ) संवर : कर्म शय करने की ओर पहला कदम हैं। हमारे आवेग कर्मो का आश्रव निरंतर करते रहते है। संवर उस द्वार को बंद करना है, आवेगों को शांत करना है, जिससे कर्मो का आत्मा के साथ नया संबंध बनना समाप्त हो जाए।

६ब) निर्जरा : इसका अर्थ होता है आत्मा के साथ जुड़े कर्मों का शय करना,ये संवर के पश्चात आता है। संवर में हमने कर्मो के आने का रास्ता बंद किया है, निर्जरा में जो कर्म आत्मा के लगे हुए है, उनका शय करना।

७) संवर और निर्जरा सधती है संयम और तप से। हमारे आवेग कारण है कर्मो के आने के, अत: आवेग चिकित्सा का  सबसे पहला सूत्र है दृष्टिकोण में परिवर्तन, सम्यक दृष्टि की प्राप्ति, हम कोई भी कार्य/आचरण करे, ये अवश्य विमर्श रहे इसका परिणाम क्या होगा?, विपाक क्या होगा?। यदि ऐसा होता है तो हमारे प्रत्येक कार्य-आचरण विवेक व संतुलन के साथ होंगे। दूसरा सूत्र है प्रतिपक्ष की चेतना को विकसित करना, क्रोध है तो मैत्री की चेतना, मैत्री के संस्कार को सुदृढ़ बनाए, इससे क्रोध के आवेग अपने आप कम होता चला जाएगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। माया के आवेग को नष्ट करना है तो ऋजुता के संस्कार को पुष्ट  करो। लोभ के आवेग को नष्ट करना है तो संतोष की चेतना को विकसित करें, पुष्ट करें। हमारी अभय की भावना जितनी पुष्ट होगी, भय का आवेग क्षीण हो जाएगा। एकत्व का विकास होगा तो घृणा अपने आप मिट जाएगी। चैतन्य की भावना जितनी पुष्ट होगी कामवासना उतनी ही क्षीण हो जाएगी। अहिंसा की चेतना जितनी पुष्ट होगी हिंसा की चेतना उतनी ही क्षीण हो जायेगी। तीसरा सूत्र है संयम, चारित्र, प्रतिक्रमण एवं प्रत्याख्यान की साधना। इंद्रियों का संयम, मन का संयम, वासनाओं का संयम। शुद्ध आचरण एवम् शुद्ध चरित्र की पालना। अतीत की हुई भूलो का प्रतिक्रमण/पश्चाताप, भविष्य के लिए प्रत्याख्यान/संकल्प। संयम का कार्य है, जो आ रहा था उसे रोक दिया। चरित्र का कार्य है, जो पहले था उस खजाने को खाली कर दिया। भगवान महावीर ने समता पर सर्वाधिक बल दिया है। समता का मूल तात्पर्य है अराग- अद्वेष की भावना। यही वीतरागता का क्षण है।

८) भगवान महावीर ने तप के बारह (१२) सूत्र बताए है,

अनशन - मत खाओ

ऊनोदरी - काम खाओ

रस परित्याग - जिह्वेंद्रीय संयम

वृति संक्षेप - खाने के विविध प्रयोग

काया कलेश - कष्ट सहिष्णुता

ये पांच सूत्र देहासक्ति से मुक्त होने के सूत्र है।

प्रतिसंलीनता - इंद्रियों को अंतर्मुखी बनाना।

प्रायश्चित - मन में विकार/नकारात्मक विचार आए, तत्काल उसको साफ कर दो, गांठ मत बांधो।

विनय - मन मे अहंकार मत करो। साधक विनम्र रहे, मृदु रहे।

वैयावृत्य - साधना करने वालों का सहयोग करना, सेवा करना।

स्वाध्याय - उस ज्ञान को प्राप्त करना, जो आत्मा को जागृत करे।

ध्यान - अपने आप में लीन हो जाना।

व्युत्सर्ग - छोड़ना, शरीर का वयुत्सर्ग, कर्म का वयुत्सर्ग।

इस प्रक्रिया के द्वारा कर्म मुक्ति घटित होती है।

९) निकाचित कर्म बंध - कर्मों का एक भेद। ऐसे कर्म जिनका फल नियम से भोगना ही पड़ता है। इनका अन्य प्रकृति रूप संक्रमण या उत्कर्षण नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां सबसे महत्वपूर्ण बात ये ध्यान रखी जानी चाहिए, जिस भव में निकाचित कर्म बंधा है यदि उसी भव में उसका प्रायश्चित हो गया तो वो निकाचित कर्म नहीं रहते, किसी कारण से वे कर्म आगे के भव में आ गए, तो वो निकाचित कर्म बंध होगा, फिर उस कर्म को भोगना ही पड़ेगा।

१०) कर्म सार्वभौम सत्ता नहीं है। प्रकृति/जागतिक नियमों में किसी का भी एकाधिकार नहीं है। कुछ शक्तियां काल में, कुछ स्वभाव में, कुछ परिस्थिति में, कुछ कर्म में निहित हैं। काल, स्वभाव, नियति, पुराकृत और पुरुषार्थ ये पांच तत्वों का समवाय है। प्रत्येक तत्व का अपना अपना स्वभाव है, पांचों सापेक्ष है, सर्व शक्तिमान एक भी नहीं। आज जनमानस में कर्मवाद-भाग्यवाद की इतनी भ्रांत पूर्ण धारणाएं प्रचलित हैं, व्यक्ति प्रत्येक समस्या, कठिनाई, सफलता-विफलता, अमीरी-गरीबी सबका उतरदायी कर्म/भाग्य को मान लेता है, ये धारणाएं समाज को पुरुषार्थ हीन बना कर देती हैं। हमे ये ध्यान देना चाहिए कि हम अपने पुरुषार्थ से, पराक्रम से कर्म को बदल सकते है। हमारी क्षमता व शक्ति का प्रतीक पुरुषार्थ है। कर्म एवम् पुरुषार्थ दो नहीं, एक ही तत्व के दो नाम है। अतीत का पुरुषार्थ "कर्म" कहलाता है और वर्तमान का कृतत्व "पुरुषार्थ" कहलाता है। भगवान महावीर ने बताया "कर्म को बदला जा सकता है, कर्म को तोड़ा जा सकता है, कर्म को पहले भी किया जा सकता है, कर्म को बाद में भी किया जा सकता है। यदि पुरुषार्थ सक्रिय हो तो हम जैसे चाहे, वैसे रूप में कर्म को बदल सकते हैं।

कर्म बाद का सिद्धांत वैज्ञानिक है, प्रकाश प्रहरी की तरह है। ये निराशा देने वाला नहीं वरन पुरुषार्थ जागरण का सिद्धांत है। आध्यात्मिक विकास एवम् मन को साधने की साधना, कर्मवाद को समझे-हृदयगम्य करने से होगी। मेरे पिता जी श्री सोहनराज जी कोठारी द्वारा कर्म एवम् कर्म मुक्ति पर  लिखित कविता प्रस्तुत है,

कर्म

निष्काम कर्म, करते रहो, जिससे,

जगत और आत्मा को, मिल जाए गति,

अनंत की ओर प्रयाण करते,

जीवन प्रवाह की, हो जाए प्रगति,

तन की वीणा के, अंतर से प्रस्फुटित हो, समय का हर पल, बन जाए संगीत,

स्वर लहरी में, तन्मय सृष्टि के, हर प्राणी को मिल जाए, सहज प्रीत,

समग्र जीवन, जागृत होकर बहा दे,

चारो दिशाओं में प्रेम का निर्झर,

जन्म जन्म के, रहस्य अनावृत होकर, प्रतिध्वनित कर दे प्रभु के स्वर,

फल की अस्पर्शता में, चलता रहे काम, नर से नारायण बनने की, यह प्रक्रिया तमाम।

बंध-मुक्ति

तुम्हीं ने तो कहा, चेतन और तन बने हुए हैं एकाकार,

इनको अलग करके ही,

व्यक्ति बन जाता प्रभो,

निरंजन निराकार,

कहां तिलों में तेल, दूध में मक्खन?

तन से अलग नहीं दिखता है, चेतन

पर जब मशीन से की पिलाई,

दही में मथनी चलाई,

तो खली से जुदा हो गया तेल,

मक्खन ने छोड़ दिया छाछ का मेल

इसी तरह तप और संयम से,

जिसने तन को झकझोरा,

तो चेतन ने कर्मो से मुक्त होकर,

तोड़ दी तन की जेल।

 

जिनेंद्र कुमार कोठारी

अंकलेश्वर ०९.०४.२१.

संदर्भ ग्रंथ : "कर्मवाद " आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी

सभी पाठक जो इस विषय में विशद ज्ञान प्राप्त करना चाहे आचार्य श्री महाप्रज्ञ लिखित पुस्तक "कर्मवाद" अवश्य पढ़े।

Comments

  1. कर्मवाद का संक्षिप्तिकरण गागर में सागर भरने के समान है। आपने अच्छी कोशिश की है।
    🙏🏻🙏🏻smt.premlata nahar on whatsapp

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  2. super , Manohari Muthar on FB

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  3. कर्मवाद जैसे कलिष्ट विषय को सरल शब्दों में समझाया बहुत अच्छा। साधुवाद।

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  4. कर्म वाद के विषय पर संक्षिप्त में लिखना बहुत ही मुश्किल होता है पर यहां विद्वान लेखक श्री का प्रयास बहुत ही सराहनीय है।।
    थोड़े शब्दो में कर्म विषयक सभी सवालों का जवाब मुमकिन नहीं है फिर भी लेखक ने बहुत सारे पहलुओं को छूने का प्रयास किया है , अभिनंदन ।।
    narendra jain ahemdabad

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  5. भावकर्म यानी की कर्म का चित्त। द्रव्य कर्म, भाव कर्म का शारीरिक आकार (कर्म)।


    आत्मा भावकर्म (आश्रव) के माध्यम से कर्म पुदगलो को आकर्षित करती है (मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग)


    दर्शनावरणीय - इस कर्म से आत्मा की दर्शन शक्ति पर पर्दा आ जाता है, जैसे चपरासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।


    संवर : कर्म शय करने की ओर पहला कदम हैं


    जिस भव में निकाचित कर्म बंधा है यदि उसी भव में उसका प्रायश्चित हो गया तो वो निकाचित कर्म नहीं रहते

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  6. Very well drafted and concept of karma in Jain Darshan is very clear.
    सुलभ भाषा मे कर्मवाद का ये जैन दर्शन की दृष्टीसेकिया हुआ विश्लेषण प्राथमिक स्तर पर अभ्यास करने वाले श्रावक को लाभकारक है

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    1. true, for deep & detail study i recommend KARMVAD by Acharya Shri Mahapragya ji

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  7. मैंने अभी आपका यह लेख कर्म प्रकृति का पढा़ 🙏 सरल और
    सहज भाषा में आपने कर्म सिद्धांत को समझाने का प्रयास किया है। भावों से हमारा कर्म बंधन दिन भर चलता रहता है यहां तक की नींद में भी। जागृत अवस्था मे किये गए कर्म बंधन का परिणाम तो अधिक होता ही है लेकिन नींद और सपने में भावो से जो कर्मों का बंधन चलता रहता है क्या उसका भी प्रभाव हमें जीवन में मिलता है ?या आंशिक रूप में भी उनको भोगना पड़ता है।
    Smt.Suman shah mumbai on whats app

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  8. मर्यादाजी - जय जिनेन्द्र
    आपने जैन दर्शन अनुसार कर्मवाद को
    सरल भाषा में विस्तार से सभी बिन्दओ को स्पष्ट कर यह लेख लिखकर सब के
    लिये उपयोगी कार्य किया है . ॐअर्हम

    जीतमल जैन, रायपुर।

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  9. . As I read through, my conviction that Sanatan, Jain, Baudh and Sikh All are based on same principle. The way we explain can be different. Rituals are different even from person to person according to ones own convictions.
    Ultimately each of these explanations lead to advaitya.
    We can discuss any time convenient to both of us.Geeta Chapter 12, verse 18,19.Help the needy to the best of your ability without expectation of a return ( even expecting praise is expectation) , “detach yourself from the lower (selfish) tendencies and attach to higher values” is the essence of all the above religions. To reach the city rly. station, you can walk, cycle, take an auto or Ola, destination is the same, only means differ. Every act that gives ME happiness is the act of God. Again “ without expectation “ is important.The DOER ( karta) has to seek the balance. Non doer ( akarta) does not need to search, for he is neither in the act nor in the time. Shivoham, Shivoham.
    Kulbandhu ji Sharma , Surat on whatsapp

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