आस्था रखें अटूट – अडिग
मैं काफी समय से सुबह सुबह सबसे जय जिनेंद्र के साथ सुप्रभात कर एक कोई भी सुवाक्य संलग्न भेजता हूं। अभी पिछले दिनों की ही बात है एक सुवाक्य भेजा था
आस्था हमेशा भक्त के चित्त और मन में होती है,
वरना कमी निकालने वालों को तो परमात्मा में भी कमी नजर आती है
तो मैं इस बारे में विचार कर रहा था, सोचा आस्था के बारे में कुछ लिखूँ। सोचते सोचते
विचार आया आस्था भक्ति है, आस्था निष्ठा है, आस्था श्रद्धा है, या फिर ये आस्था है क्या? आस्था किसी व्यक्ति विशेष के लिए या दल विशेष के लिए या किसी राष्ट्र के लिए या किसी धर्म या संप्रदाय के प्रति या समाज विशेष के लिए - किसके लिए? आस्था गूढ़ शब्द है। आस्था के बारे में लोगों के मन में
जो कई भाव आते हैं, उन भावों पर विचार करता हूं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के प्रति
जो विशुद्ध, निर्मल एकात्मक
भाव आता है, जो उसे उसके प्रति जोड़ने का कार्य होता है, वह आस्था है।
मैं पाता हूं, कि आचार्य भिक्षु की दृढ़ आस्था आगम के प्रति या भगवान महावीर के प्रति थी और वह सारी उम्र उस पर दृढ़ रहे। उसी दृढ़ता के आधार पर उन्होंने नए संप्रदाय का सर्जन भी किया। आस्था के कारण कितनी भी कठिनाई आई पर वे अडिग रहे। आस्था धार्मिक आलंबन हैं, आस्था का एक आधार है, व आस्था आध्यात्मिक मूल्य पर विश्वास है।
एक आस्था मैं देखता हूं, मीरा की कृष्ण के प्रति - उनकी इतनी दृढ़ आस्था की राणा जी ने जहर का प्याला भेजा और उसको भी अमृत समझ के पी लिया। उस जहर का मीरा पर कोई असर नहीं हुआ। इतनी प्रीतम के प्रीत की आस्था। अंत में कहा यह जाता है कि वे
कृष्ण में समाधिस्थ हो गई, यह आस्था की पराकाष्ठा है। आस्था जुनुन है, आस्था मन व चित्त भाव है और आस्था तादम्यता
का पूर्ण विराम है।
जैसा कि सुवाक्य में कहा गया आस्था चित्त
व मन का भाव है, अगर गलती परमात्मा में निकालते हैं तो फिर यह आस्था नहीं है, वहां आपकी आस्था में
कमी है या फिर कोई और
बात है। परमात्मा तो परमात्मा है उसमें कमी निकालना हमारा कार्य नहीं है, आस्थावान व्यक्ति
अपनी आस्था मे जुड़कर परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखे ये काम्य है। आज हम
वहां तक पहुंच पाए तो फिर हम समझते हैं कि यह आस्था का एकात्मकता का भाव है अन्यथा मैं कई बार कईयों को देखता हूं आज यहां धोक लगा रहे हैं, कल वहाँ धोक लगा रहे हैं, परसों और कहीं। उन्हें भरोसा अपने आप पर ही नहीं हैं, तो परमात्मा पर क्या भरोसा करेंगे?
मैं यहां थोड़ा सा लौकिक और लोकोत्तर के बारे में भी बात करूंगा। लौकिक में तो हमने यह भी देखा है कि राजनेताओं की आस्था पलटते देर नहीं लगती। वहां तो दलबदलूओं की भीड़ हमेशा मौजूद रही है। किसी एक दल के प्रति आस्था या किसी एक व्यक्ति के प्रति आस्था या किसी एक सिद्धांत के प्रति आस्था - भारतीय राजनीति में विशेष तौर से मैंने बहुत कम देखी। गांधीजी जैसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो कि अपनी बात पर अडिग रहते हैं। सत्य के प्रति गांधीजी की आस्था अपने आप में एक अनुकरणीय उदाहरण हैं। उनको अंग्रेजों ने कितने ही कष्ट दिए - चाहे दक्षिण अफ्रीका हो या भारत। वे अपने सत्य पर अडिग रहे और सत्य के प्रति उनकी आस्था डिगी नहीं। उसी आस्था के बल पर, अहिंसा के हथियार से भारत को स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों पर विजय दिलवाई। यह है आस्था का एक दृढ़ मनोबल। अन्यथा यहां राजनीति वाले लालों का नाम इसमें ज्यादा प्रसिद्ध है जो कि अपनी आस्था के विचलन के लिए जाने जाते हैं। हां, इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि उनकी आस्था कुर्सी के प्रति पक्की है। उसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं। यह खेल हम पिछले 75 सालों से भारतीय राजनीति में बराबर देख रहे हैं, सत्ता के प्रति आस्था इस देश की सबसे बड़ी आस्था का केंद्र बन गया है।
राजनीति अपनी जगह है - धर्म अपनी जगह है
और आस्था का अपना एक अलग स्थान पिछले दिनों में जो एक धार्मिक स्थलों पर दो-तीन दशकों
से भीड़ देख रहा हूं क्या वह आस्था के बल पर आ रही है? या फिर केवल मात्र
भेड़ चाल के आधार पर आ रही है? कई बार इस विषय पर मैंने आचार्य महाप्रज्ञ जी से सुना है अनुयायी तो बढ़ रहे हैं पर श्रावक नहीं बढ़ रहे हैं। उनके कहने का जो मैं भावार्थ समझ पाया
वह यह था लोगों में वह दृढ़ आस्था नहीं है, केवलमात्र देखा देखी ज्यादा बढ़ रही है। तो यह देखा देखी हमें किस और ले जा रही है? इस पर हम विचार करें।
मैंने सोचता हुँ कि मेरे को जाना है जोधपुर से मुंबई तो जिनेंद्र अगर सांचौर होकर जा रहा है, उस रास्ते की तरफ गया। फिर देखा नहीं श्रेयांस तो जालौर होकर निकल गया तो मैं उधर गया, फिर देखा मैंने अविनाश सिरोही होकर निकल रहे हैं तो मैं उधर गया, बस मैं केवल दूसरों को देखता रहा - अपना गंतव्य और रास्ता भूल गया और केवल इधर-उधर भटकता रहा। क्या यह भटकाव ही मेरी आस्था का विचलन नहीं है? हम भी केवल इसी रूप में भटक कर समय व्यतीत कर रहे हैं, ओर अंत में नतीजा सिफर। आत्मा से परमात्मा तक का मार्ग एक ही है और हमें अगर उस ओर बढ़ना है तो उसके प्रति व अपने आप पर आस्था रखनी पड़ेगी। हम इधर उधर भटकते रहेंगे तो यह जो उचित राह है वह राह भी नहीं मिल पाएगी। मैंने कहीं एक किस्सा पढ़ा था । एक पंडित जी और मौलवी जी थे, दोनों बहस कर रहे थे कि मेरा खुदा बड़ा है - मौलवी जी ऐसा बोलते हैं और पंडित जी बोले नहीं हमारे बजरंगबली बड़े हैं। अब दोनों तकरार करने लगे तो दोनों ने शर्त लगाई कि इस दो मंजिली बिल्डिंग से नीचे कूदेंगें और जो सही सलामत नीचे पहुंच जाए उसका रहनुमा बड़ा है। पहले पंडित जी कूदे और पंडित जी ने कहा जय बजरंगबली और पंडित जी सही सलामत से नीचे पहुंच गए फिर मौलवी जी कूदे या-खुदा बोलकर बीच में उन्हें लगा कहीं खुदा ने नहीं बचाया तो मेरा क्या होगा? तो पंडित जी को तो बजरंगबली ने बचाया ही है, इसलिए मैं भी आवाज बजरंगबली को ही दूं और उन्होंने भी बीच में जय बजरंगबली आवाज लगाई जाए। वह नीचे गिरे तो पैर में फेक्चर हो गया। उन्होंने मन ही मन खुदा को कोसा आप के कारण मेरे फैक्चर हुआ और आप मुझे बचाने भी नहीं आए। कहते हैं खुदा ने उन्हें कहा मैं तो तुम्हें बचाने आ रहा था कि लेकिन बीच में तुमने बजरंग बली को याद कर लिया तो फिर न तो बजरंगबली आये न मैं आ पाया। यह था तुम्हारी आस्था का विचलन - इस तरह से किसी एक के प्रति आस्था न रखना या फिर मन में कई दूसरे भावों का आना और देखा देखी इधर-उधर भटकना यह सब हमारी आस्था के प्रति विचलन ही है।
कई चरित्र आत्माओं को जिन्होंने कुछ
वर्षों तक साधु का वेश धारा और बाद में पता नहीं किस आकर्षण में उस भेष के
विपरीत आचरण करने लगे, यह विपरीत आचरण भी क्या है? आस्था का विचलन
है। उन्होंने सही रूप में धर्म का स्वरूप को समझा ही नहीं। धर्म
न तो किसी भेष में है नहीं किसी वेश में है। धर्म तो है आत्मा की शुद्धि का साधन उसके प्रति अडिग रहना है। एक व्यक्ति ने दीक्षा ग्रहण की जैन श्वेतांबर
तेरापंथ संप्रदाय में कुछ साल - वहां पर साधु रहे, उसके बाद वहां से
अलग होकर मंदिरमार्गी संप्रदाय साधु हो गए, वहां भी कुछ समय
तक रहे और वहां से स्थानकवासी संप्रदाय में चले गए। यह अस्थिरता क्या
दर्शाती है? इस पर हम चिंतन मनन करें। हम अपनी आस्था को पुष्ट नहीं कर पाए और केवल भटकते रहे तो इस 84 लाख जीवा योनि के अंदर भटकते भटकते पता नहीं कब तक यों ही अस्थिर-मना गोते खाते रहेंगे और वह आस्था हमें कब
मिलेगी? हमारे अंदर मीरा की आस्था कब आएगी? आचार्य भिक्षु की सी आस्था कब पैदा होगी? केवल इनके नाम लेने से या इन महापुरुषों को याद करने से आस्था नहीं आ सकती।
एक घटना तुलसीदास जी की मैंने कहीं पढ़ी या सुनी थी। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस लिखी और वे रामचरितमानस भक्तों को सुनाते थे। उन्होंने उस कथा सुनाने के दौरान लंका की अशोक वाटिका का वर्णन कर रहे थे तो वहां उन्होंने बताया अशोक वाटिका में कनेर के सफेद फूलों के पेड़ लगे हुए थे। कहा यह जाता है कि उनकी रामचरितमानस को सुनने हनुमान जी स्वयं आते थे और हनुमान जी ने बीच कथा में खड़े होकर कहा कि तुलसीदास जी अशोक वाटिका के फूल लाल थे सफेद नहीं। तुलसीदास जी बोले प्रणाम बजरंगबली, पर मैंने जहां तक जाना है वह फूल सफेद थे। हनुमान जी बोले मैं तो स्वयं वहाँ देख कर आया था आपको क्या पता है? तुलसीदास जी बोले यहां भक्तों की भीड़ में भगवान श्री राम जी भी विराजे हैं - वह बताएं हमें फूल सफेद थे या लाल थे, तो कहते हैं रामचरितमानस के श्रवण करने वालों में भगवान राम स्वयं उपस्थित थे और भगवान राम बोले बजरंग बली तुलसीदास जी ठीक कह रहे हैं फुल सफेद ही थे पर तुम्हें क्रोध आया हुआ था और क्रोध में फूल तुम्हें लाल नजर आए। तो यह है भक्ति की पराकाष्ठा आस्था की पूर्णता भगवान राम के जीवन पर रामचरितमानस तुलसीदास जी ने लिखी - वही भगवान राम स्वयं भक्त तुलसीदास के मुंह से अपनी कथा सुनने श्रोताओं में आते थे। ऐसी आस्था, श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा होना प्रबल पुण्य का योग है और आस्था इसी भांति की होनी चाहिए।
आस्था का विचलन या आस्था का भ्रष्ट होना मानव जीवन का सबसे बड़ा अमंगलकारी कदम है, कार्य है। मैं इस बात के माध्यम से आप सब से इतना ही अनुरोध करूंगा अपनी आस्था को पुष्ट करें अपने आराध्य के प्रति इतनी आस्था रखें आप उसके बारे में कहीं कोई गलत बात ना सुने, न करें , ना सोचे। आपकी आस्था आराध्य के प्रति इतनी अटूट होनी चाहिए आराध्य स्वयं आपके हर कार्य में सहायक बने और आप अपने आराध्य को इतना अपने प्रति रिझा लें कि वह आप जैसे भक्तों को पाके स्वयं भी अपने को धन्य माने।
आस्था के चमत्कार के कई किस्से कथाएं ना केवल हमने पढ़े
हैं, वरन् देखे भी हैं। मेरे बुआ जी चम्पा बाई जिनकी आंखों की रोशनी चली गई थी। उनकी प्रगाढ़ आस्था अपने आराध्य आचार्य भिक्षु के प्रति थी।
आचार्य भिक्षु स्वयं उन्हें दर्शन देने पधारे और उनकी आंखों में रोशनी आ गई। यह तो घटना मेरे स्वयं के परिवार में हुई है। हमारी आस्था हमें उन आचार्य
भिक्षु , मीरा, तुलसीदास, सूरदास, कबीरदास, रैदास, रसखान आदि की श्रेणी में तक ले जाकर भक्ति की
पराकाष्ठा तक अपने आराध्य के प्रति पहुंचाएँ और अपनी आस्था को दृढ़ ही नहीं दृढ़तर बनाना है। तभी हमारा
मानव जीवन में आना सार्थक होगा अन्यथा तो पशु योनि में भी एक श्वान (कुत्ता) या कोई भी
जानवर अपने मालिक के प्रति वफादार रहता है। हमें आस्था रखनी है और वह भी दृढ़ता के साथ
रखनी है, निरंतर रखनी है, समझकर रखनी है। भटकाव व अस्थिरता से
छुटकारा पाना है। गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास ऐसा नहीं होना है यह दृढ़ संकल्प हमारा रहे।
मैं मेरी बात का समापन पापा जी श्री
सोहन राज जी कोठारी की कविता से करना चाहूंगा ----
मीरा पहुंची वृंदावन में,तुम्हारे मंदिर के द्वार
महंत ने स्त्री देखकर प्रवेश देने से कर दिया इनकार
तब मीरा ने मर्माहत होकर कहा
"कृष्ण के सिवाय वह किसी को पुरुष मानती नहीं
उसकी उपस्थिति में कोई समर्पित प्राणी
पुरुष होने का दावा कर सकता कहीं"
भक्त सारे स्त्रैण चित्त बनकर ही पा सकते हैं भगवान्
समर्पण भावना से ही खिल उठते हैं भक्त के प्राण
तुम्हारी भक्ति का तब महंत ने जान लिया मर्म
झिझक गया, उसको अपनी बात पर आ गई शर्म
मीरा ने तुमको प्रियतम मान, किया कण कण में स्वीकार
प्राणों की धड़कन, पावों की थिरकन में तुम छा गए साकार
स्मरण की भाव - विह्वलता में, नाच उठे उसके रोम-रोम अंग
दिन की कल्पनाओं व रात के स्वपनों में तुमने
उसके जीवन में भर दिया नवरंग
नृत्य की मस्ती में जब चल पड़ते उसके चरण
सम्मोहित होकर वह तुम्हारा कर लेती वरण
अपनी चेतना मे पूर्णतया तुमने उसे लिया रमा
तभी तो वह तुम्हारी दिव्य मूर्ति में गई समा।।
रचनाकार:
मर्यादा कुमार कोठारी
(आप युवादृष्टि, तेरापंथ टाइम्स के संपादक व अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं)
आस्था पर आपने बहुत ही मार्मिक विवेचना प्रस्तुत की हैं, आपको प्रणाम!
ReplyDelete🙏🙏
Deleteआस्था को में यहां पर इष्ट के चयन के साथ जोड़ना चाहता हूं। बात मेरे नेटिव प्लेस फतेहपुर शेखावाटी की है। परम् पावन गुरुदेव आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का प्रवचन चल रहा था। फतेहपुर कोई बहुत बड़ा क्षेत्र नही होने की वजह से गुरु सामीप्य आसानी से सुलभ हो गया। में दोपहर में परम् पावन गुरुदेव के पास पहुंचा और जिज्ञासा कर ली आपने आज प्रवचन में फ़रमाया प्रत्येक का कोई न कोई इष्ट होना चाहिए। गुरुदेव इष्ट का चयन कैसे करे। प्रज्ञा पुरुष गुरुदेव ने फरमाया जिसके प्रति तुम्हारा सहज आकर्षण हो उसे ही अपना इष्ट बनाओ।
ReplyDeleteसचमुच में तो यहां ये भी उल्लेख करना चाहता हूं जो जीव हलु कर्मी होते हैं, उन्हें यह अवसर आसानी से प्राप्त नही होता। किसी के प्रति पूर्ण समर्पण बिना तर्क एवं बुद्धि लगाए। कहने को तो आसान लगता है परन्तु इतना समर्पण आज के युग मे मुझे तो आसान नही लगता, क्योंकि में तो अभी भी इष्ट की तलाश में हूँ न जाने कब मेरे अन्तराय कर्म टूटेंगे और में भी किसी के अन्दर खोने एवं सर्वस्व समर्पण की राह पर आगे बढूंगा।
मर्यादा जी भाईसाब ने आस्था की बात को बहुत ही सरल एवं सटीक भाषा मे विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से पाठकोँ को इसे पढ़कर एक नई दिशा मिलेगी। आप इसी प्रकार नए विषयो पर हमें दिशा बोध दिलाते रहें।
मंगलकामना।
सुबोध
प्रिय सुधीर जी, ब्लॉग पढ़ने के लिए अमूल्य समय आपने दिया व उचित समीक्षा की, आपका धन्यवाद।
Deleteआस्था अपने आराध्य के प्रति समर्पण का भाव पैदा करती है आस्था दिखावे के लिए नहीं दिल से होनी चाहिए पर आज दिखावे के लिए जादा है बिल्कुल सटीक लिखा है आपने आज दिखावा अधिक समर्पण कम
ReplyDeleteहै
मुझे भी सम्यक आस्था प्राप्त हो।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सटीक विषलेशन by Maryada uncle
जय जिनेंद्र 🙏🏻
pixie जी, ब्लॉग पढ़ने के लिए अमूल्य समय आपने दिया व उचित समीक्षा की, आपका धन्यवाद।
Deleteआस्था देव,गुरु,माता पिता में परम पुरुष को अपना सब कुछ स्वीकार करती है।अपने आदर्श के प्रति समर्पण से ही अध्यात्म के मार्ग पर बढ़ जा सकता है।मीरा तो श्रीकृष्ण की दीवानी थी और भक्ति में उसने ज़हर पी लिया,सारे सामाजिक बंधन तोड़ व राजसी तहत बांट छोड़ कर एक सन्यासी की भांति एक चमार जाति के रैदास को गुरु बनाया और उसी गुरु भक्ति के माध्यम से भगवान कृष्ण को पा लिया ।बिना गुरु भक्ति हमे शिवमार्ग सत्य की राह नही मिल सकती है ।जय जिनेंद्र के उद्घोष हमे असीम आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त होती है और सहज ही हमारी आस्था प्रबल होती जाती है।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर,सरल एवं सारगर्भित लेख।सही कहा आपने की हमारी आस्था इतनी प्रबल होनी चाहिए कि हमे कोई और विकल्प की चाह न रहे।
ReplyDeleteभावना जी, ब्लॉग पढ़ने के लिए अमूल्य समय आपने दिया व उचित समीक्षा की, आपका धन्यवाद।
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ReplyDeleteआज का आपका लेख आस्था पर है।
ReplyDeleteयह सही है। ऐसी आस्था जो दृढ़ हो,इतनी सहजता से आ जाये तो, हमारे प्रथम आचार्य श्री को पांच वर्ष कठिन समय के नहीं आते। आज दिखावे की दुनिया हो गयी है।आचार्य श्री तुलसी जी ने कहा आडम्बर में धर्म कहाँ है।
आज ऐसा करोना आया, परिवार, रिश्तों की अहमियत फिर से समझा दिया है।आपने विषय की अच्छी प्रस्तुति किया है।
जीतमल जी जैन, रायपुर।
(via whatsapp)
ॐ अर्हम 🙏
ReplyDeleteआदरणीय मर्यादा जी सा
आस्था और दृढ़ विश्वास पर बहुत सटीक लेख विभिन्न उदाहरणों के साथ ।🙏
घनीभूत विश्वास से आस्था प्रगाढ़ बनती है और समर्पण को जन्म देती है
आस्था का प्रसाद द्विगुणित जीवन में बरसता है रक्षा कवच बन हर तूफ़ान का सामना करता है।
आस्था अपने भीतर छिपी शक्ती स्रोतों का उद्घाटन है
आदरणीय सोहनराज जी सा की प्रेरक पंक्तियाँ पठनीय एवं मननिय हैं।
🙏🙏
बिंदु जी रायसोनी बैगंलुरू।
(via whatsapp)
बहुत सही लिखा आपने केवल भीड़ तंत्र हो गया है दिखावा हो गया है। गुरुदेव के चातुर्मास स्थल के आस पास क्या क्या पर्यटन स्थल है उसकी पहले जानकारी लेते है
ReplyDeleteसंतोष जी धारीवाल, बगड़ी - चेन्नई ।
(via whatsapp)
सम्मानीय भाई साहब मर्यादा कुमार जी कोठारी
ReplyDeleteसादर जय जिनेंद्र
भाई साहब आस्था के बारे में आपका लेख पढ़कर मेरे को अत्यंत खुशी हुई आपके पिताश्री आदरणीय जज साहब सोहन राज जी सा कोठारी की तेरापंथ धर्म संघ के प्रति आस्था मैंने नजरों से देखी आपने लिखा मीरा की श्री कृष्ण के प्रति आस्था वैसी ही आस्था आदरणीय जज साहब की तेरापंथ धर्म संघ व तेरापंथ गुरुओं के प्रति थी उन्होंने अपना जीवन इमानदारी पूर्वक जिया आदरणीय जज साहब की काफी विशेषताएं आप में समाहित हैं आज धर्म संघ मे अच्छे व समर्पित श्रावकों की भारी कमी हो गई है अधिकतर लोग कीड़े मकोड़ों की तरह इधर उधर भटक रहे हैं कभी मंदिर कभी मस्जिद कभी दरगाह कभी गुरुद्वारा कभी आसाराम कभी दाती महाराज कभी जय माता दी कभी राधे मां कभी निर्मल बाबा कभी सिरियारी भिक्षु धाम एक ही दिन में पांच पांच बार ठिकाना बदलते फिरते हैं ऐसे लोगों को कोई कह दे तो जवाब आता है भाई साहब कलयुग है पांचवा आरा है तो पांचवे आरे में रोटी की जगह दूसरी चीज खाते हैं क्या भाई साहब मर्यादा कुमार जी हमें नाज है आपके पिताश्री आदरणीय जज साहब पर जिन्होंने अपना अच्छा जीवन जिया व अच्छे संस्कार आपको विरासत में देकर गए आपकी भी श्रद्धा आस्था तेरापंथ धर्म संघ के प्रति मजबूत है व आप भी धर्म संघ को अच्छी सेवाएं दे रहे हैं आपका प्रयास बहुत ही सराहनीय है आपके ऐसे लेख पढ़कर किसी न किसी को तो सद्बुद्धि आएगी बहुत-बहुत साधुवाद🙏🌹🌹🌹🌹🌹✌
सोहन जी सालेचा जसोल - सुरत।
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जैन धर्म के प्रति आगम के प्रति स्वामी जी के प्रति हमारी मेरी आस्था आस्था दृढ़ रहे यह मन में विश्वास है बहुत अच्छा लिखने का प्रयास किया है बस इसी तरह आगे बढ़ते रहो ओम अरहम
ReplyDeleteshakuntala ji shah
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Bhut he acha laga aap bhut acha lekhta ha om arham sa mangalkamna shubhkamna bhadhai
ReplyDeleteयशवंत बाफना, मुंबई।
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आर्य भिक्षु की कलम से
ReplyDeleteआगम कीआस्था ने
रास्ता दिखा दिया।
चला अकेला राही बन
तेरी चाहत ने पथ दिखा दिया।
है प्रभो तेरी विरासत ने
जीने का मकसद सीखा दिया।
कुछ मुसीबते भी आयी
कुछ मुश्किलें भी आयी
मैं चलता गया सत्य की राह में
वक्त ने तेरापंथ दिखा दिया।
है आर्य भिक्षु तेरे पथ का
अनुशरण कर चलता रहूँ
न भीड़ का मकसद बन
न दिखावे का सफर कर
श्रद्धा से नमन करता रहूँ।
शांतिलाल संकलेचा, इचलकरणजी - असाढ़ा।
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बहुत ही सुंदर प्रयास किया आपने . आप धर्मसंघ के एक कर्मठ व संघ समर्पित श्रावक है आपकी निष्ठा को नमन .🙏
ReplyDeleteख्यालीलाल जी तातेड़, मुंबई।
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ॐ अर्हम
ReplyDeleteआदरणीय मर्यादा जी सा
आस्था और दृढ़ विश्वास पर बहुत सटीक लेख विभिन्न उदाहरणों के साथ ।🙏🙏🙏
पुखराज जी जे टी एन।
(via whatsapp)
आस्था पर आपने बहुत ही मार्मिक विवेचना प्रस्तुत की हैं, आपको प्रणाम!
ReplyDeleteराजेन्द्र मुणोत, मुंबई।
(via whatsapp)
मर्यादाजी मार्मिक चित्रण किया है आपने ! धर्म / धार्मिक बहुत बड़ा अंतर है ... कही -कहीं कभी कभी लगता है ..कि . गुरु को मानते है ... गुरु की वाणी को सिर्फ़ श्रवण करते है ... आचरण में नहीं उतारते ..। मानना - व चरितार्थ करना इस अंतर को समझना आवश्यक है !
ReplyDeletemanoj ji sanklecha, pune
(via whatsapp)
आस्था और विश्वास किस पर और किस आधार पर.... क्या हम केवल जन्मना जैन है.......
ReplyDeleteजब तक हम इस आधार को नहीं समझेंगे.... तबतक पूर्ण समर्पण या आस्था पूरी नहीं हो सकती।
श्रेयांस डागा
श्रेयांस जी डागा, सही कहा आपने... ब्लॉग पढ़ने के लिए अमूल्य समय आपने दिया व उचित समीक्षा की, आपका धन्यवाद।
Deleteआस्था से ही दृढ संकल्प पैदा होता है ओर संकल्प की यही असीम शक्ति ही पुरुषार्थ करवाती है व असंभव लगने वाले लक्ष्य सहज ही हासिल होते है ऐसा मेरा चिंतन है ,बहुत अच्छा चिंतन भेजने का धन्यवाद
ReplyDeleteI have gone through your thoughts on a very important subject. I am happy you raised thisp topic.
ReplyDeleteI wish to narrate a small conversation with a Sindhi who met me in the train while I was returning from Mumbai many ears back. This co-traveller was with his mother and wife and was pgoing to Nathdwara for Srinath ji's Darshan . I asked him do Sindhis also have interest in Shrinath ji. His reply was no. He then said his mother is in contact with some Srinath ji's followers, they criated interest in her so she insisted to go for the Darshan. He then continued Sir some years back we never heard the name of Veshnau devi. And now very large number of people are going, rather rushing for Vesgnau devi. He continues sir as more and more 'pap' is increasing, more and more greed for earning more money, more and more corruption is increasing people are rushing for more and more so called religious activity without having any understanding of any religion . Take example of our own Bhiksu swamy tradition how many Janma Jains regularly going to Maharaj know the basics of their own tradition or even Jainism. If you remember l have been persuasive to organise seminars for our shrawaks to know what is defition of Jainism, what is Bhiksu Darshan but no one was interested. To many it is blind shraddha, to many it is leadership or important position that is predominantly drawing Forse to visit Sadhu's.
I am glad that you are trying to talk about for what Bhiksu stood.
I have shared my views supporting your efforts only. Though I have some to say but l will narrate later on.
Thanks.
B C Lodha (Ex. Vice Chancellor, JVBU)
(via whatsapp)
आडम्बर कम करेंगे तो आस्था बढ़ेगी
ReplyDeleteडुंगरचंद सालेचा, हैदराबाद।
(via whatsapp)
Sahi kaha maryada bhai apne ,Mahapragyaji Darshnik and bhavishya vakta the
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