काल का चक्र
अभी कल व्हाट्सएप मैसेज पढ़ रहा था तो मैसेज पढ़ा, शून्य का आविष्कार आर्यभट्ट ने किया। आर्यभट्ट तो कुछ सैकड़ों वर्ष
पहले ही पैदा हुए। रावण
के 10 सिर तो उस युग में भी थे, तो फिर 10 की गिनती कैसे होती थी? ऐसी कई बातें हैं, आजकल चर्चा में हम बराबर सुनते हैं। यही
पिछले दिनों जब रामायण देखी गई तो लोगों ने पुष्पक विमान को देखा, कहा गया कि राइट भाइयों ने हवाई जहाज का अविष्कार किया, उस जमाने में यह क्या था? ऐसे ही हमने जब रामायण और महाभारत के
युद्ध देखें और उसमें अस्त्र-शस्त्र देखे, चाहे ब्रह्मास्त्र हो, चाहे पाशुपतास्त्र हो, नारायण अस्त्र हो और भी कोई अस्त्र हो, वज्र भी हो सकता है, यह सारे जो अस्त्र-शस्त्र थे, इनमें इतनी क्षमता बताई जाती है कि
पूरा विश्व या ब्रह्मांड को झकझोर दे। क्या उस जमाने में इतनी विज्ञान की
प्रगति थी? क्या उस जमाने में इतना सब कुछ था? अगर हाँ, तो फिर वह कहां गया? यह प्रश्न हमें अपने आप से भी पूछना
पड़ेगा।
मैंने कुछ पुरानी पुस्तकें पढ़ी तो पाया वैदिक धर्म में चार
युग
बताए गए जो हमेशा साइकिल की तरह चलते रहते हैं - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलयुग। जैन धर्म में अवसर्पिणी
और उपसर्पिणी
काल बताया गया और वह काल भी साइकिल की तरह चलते हैं।
जैन धर्म में बड़ा अच्छा लिखा है इस ब्रह्मांड का न कोई आदि है ना कोई अंत है, बस चला आ रहा है। काल के ग्रास में जब सारी चीजें समा
जाती है और पुनः उत्पन्न हो जाती है। यहां कोई भी तत्व न घटता है ना बढ़ता है।
यह भी ठीक लगा क्योंकि जब हर युग का अपना अपना प्रगति का विकास का समय था, जीवन उस युग में भी था; जीवन इस युग में भी है। जीने का तरीका
जरूर अलग हो सकता है लेकिन यह कहना कि यह अविष्कार अभी हुआ है पहले नहीं था, अब जैसे माना यह जाता है कि लोहा हमने
कुछ समय पहले कुछ हजारों हजार साल पहले ही निकाला। जबकि रामायण और महाभारत का काल
उससे भी पहले का है वह लड़ाई क्या बिना हथियारों के हुई थी। उनके अस्त्र
शस्त्र क्या लोहे
के
नहीं थे? या किसी अन्य धातु के थे? सारे प्रश्न है और जिज्ञासा रहती हर
व्यक्ति में। एक मानव स्वभाव है जिज्ञासा का - तर्क का और अभी जमाना वैसे भी तक तर्कवादी ज्यादा हो गया। मेरा तो यह मानना
है हर युग ने अपने - अपने हिसाब से नई नई चीजें बनाई। नए नए अविष्कार किये और नए - नए अविष्कारों के साथ
उन्होंने अपना जीवन जिया और फिर वह अविष्कार किसी प्रलय के कारण - किसी सुनामी के
कारण या किसी अन्य कारणों से समाप्त हो गए। फिर अगले युग में कीमियागार द्वारा
या किसी वैज्ञानिक द्वारा अपनी प्रज्ञा से नई चीजें बनाने की कोशिश ही नहीं की वरन
बनाई भी लेकिन हर युग में शोध और अविष्कार हमेशा हुआ, लेकिन फिर भी आत्मा जिसके बारे में
कहा यह जाता है वह अमर है। आज तक उस तक पहुंचने में कितने
लोग कामयाब हो पाए, यह प्रश्न है?
गीता में कृष्ण यही कहते हैं सब मुझसे ही पैदा होते हैं और मुझ में
ही समा जाते हैं। जैन धर्म में कहा गया - हर आत्मा परमात्मा है, हर युग में हमेशा हम बाहरी विकास की
और ज्यादा बढ़े।
सारी चीजें अलग अलग ढंग से - अलग अलग तरीके से हमने बनाई और बाद में वह बिगड़ गई।
फिर नयी
बना दी। जैसे-जैसे सभ्यताएं बनी, संस्कृति बनी, तो संस्कार भी बने और अपने अपने हिसाब
से सारे संस्कार अपनी-अपनी सभ्यताओं में ढलते गए। अब यह कहना उस युग में क्या था? क्या यह युग ज्यादा प्रगतिशील है? यह बात बेमानी हो जाएगी। हर युग
अपने अपने हिसाब से प्रगतिवादी था - प्रगतिवादी है - प्रगतिवादी रहेगा। विकास
कि हमेशा अपेक्षा है उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती लेकिन विकास किस हद तक हो यह
जरूरी है क्योंकि विकास अगर विनाश की हद तक हो गया तो
फिर
नई सभ्यताएं, नई संस्कृतियां, नए संस्कार कैसे
पैदा
होंगे।
यह मानना चाहिए इस काल में आर्यभट्ट ने सबसे पहले हमें शून्य के बारे में सिर्फ पहचान करवाई। गिनती नहीं होती तो फिर क्यों कहते
कौरव 100 भाई थे क्योंकि गणनाए तो हर युग में रही है और हर युग अपने अपने
तरीके से गणना करता रहा है क्योंकि अगर हम महीने की बात करें अभी जो अंग्रेजी
महीने चल रहे हैं, ये तो इसी युग के हैं। काल का जो मान है, वह भी हमारा ही बनाया हुआ है; चाहे विक्रम संवत ले लें, चाहे शक संवत ले लें। यह सारे ढाई से
तीन हज़ार साल
के अंतर्गत हैं। तो फिर क्या उससे पहले वर्षों की गणना नहीं होती थी? क्या समय का माप नहीं होता था? कुछ ना कुछ तो माप था। जब भगवान राम 14 वर्ष के वनवास में गए थे। पांडव 12 वर्ष के वनवास में, 1 वर्ष अज्ञातवास में काटा था, भगवान
ऋषभ देव ने करीब 13 माह निराहार तप किया था। गणना के अपने
अपने तरीके हैं। हर
युग की अपनी-अपनी गणना है।
बस मैं अपनी बात को समाप्ति की ओर ले जाऊंगा - और कहूंगा कि हर युग का अपना अपना
महत्व है और अपने अपने हिसाब से हर युग में कुछ न कुछ जीवन जीने के लिए कार्य
किया है। अब वह कार्य वहां तक रह गया या आगे आया? यह हमें विचार करना है। एक बात और जब मैं कई बार पहाड़ों पर बड़े-बड़े
मंदिर देखता हूं, तो सोचता हूं क्या उस युग में इतना पत्थर आदि
वहां कैसे ले जाया गया होगा? चाहे मैं सम्मेद
शिखर जी या पालीताणा
को देखूं - चाहे गिरनार को देखो। तिरुपति बालाजी के
मंदिर को देखो हजारों हजारों साल पहले पहाड़ी पर इतने मंदिर शिखरबंद बने तो कैसे कोई न कोई तो तकनीक थी। दिलवाड़ा का मंदिर बना हो -
रणकपुर का मंदिर बना - वैष्णो देवी वहां पर हो, अष्टापदजी और कैलाश मानसरोवर की बात करूं। यह
सारी वे जगह है जहां आज भी जाने में हमें बहुत कठिनाई
होती है। उस
युग में किस तरीके से मंदिरों का निर्माण हुआ होगा? हमारे लिए विचारणीय है इसमें मैं यही मानता हूं उस युग में भी विकास था
- सारी बातें थी। समय के साथ जैसे डायनासोर चले गए - वैसे ही वह सारी विकास वाली
बातें कम हो गई और फिर हमें नए विकास की ओर आगे बढ़ना पड़ता है।
बस हम आगे बढें, आगे बढें, आगे बढें।
मैं पापा जी श्री सोहन राज
जी कोठारी की कविता से अपना आलेख संपन्न करूंगा
जानता
हूं, विषय, सभी विश्व के,
दर्शन, साहित्य, कला, विज्ञान,
मैंने इन
सब पर, दिए, बहुत ही, व्याख्यान
पर मैं, उस समय हो गया, मौन,
जब, किसी ने धीरे से, मुझे पूछा
"आप
स्वयं हैं कौन?"
रचनाकार:
मर्यादा
कुमार कोठारी
(आप
युवादृष्टि, तेरापंथ टाइम्स के संपादक व अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय
अध्यक्ष रह चुके हैं)
ॐ अर्हम्
ReplyDeleteThank you Pankaj ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
DeleteOm Arham,, bhut saandar..
ReplyDelete👌👌👌
ReplyDeleteThank you Mukesh ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteहर काल चक्र के साथ विकास और विनाश, दोनों का आभास होता है।
ReplyDeleteपरंतु, विज्ञान का धूमिल हो जाना पर भी इतिहास ज्ञान का रह जाना कम आश्चर्यजनक नहीं है।
Shreyans Daga
You are true shreyans ji, research can be carried out. Thank you ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteमर्यादाजी ऐसे ही अपनी सोच को हमारे साथ शेयर करते रहें और हमको भी नए तरीके से सोचने एवं समझने का मौका मिले।ॐ अर्हम🙏🙏
ReplyDeleteसुरेंद्र ओसवाल
Thank you Surendra ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteमर्यादा कुमारजी ने जिस गहन चिंत्तन के साथ तर्क प्रस्तुत किया है वो आपके अलावा और कोई नहीं कर सकता आपका हर लेख चित में असीम ऊर्जा का स्पंदन करता है। AMIT KOTHARI JASOL
ReplyDeleteThank you Amit Bhai for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteबहुत ही सार्थक व गहन विचार जानने का अवसर मिला। आगे भी जारी रहे।
ReplyDeleteThank you ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs. please share your name as well.
Deleteआदरणीय मर्यादा जी भाई साहब, इस आलेख में बहुत ही सुन्दर, सरल व्याख्या से कभी न विस्मृत होने वाली जानकारी मिली । धन्यवाद।।
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Deleteजय जिनेन्द्र
ReplyDeleteयह सभी शंकाएं बहुत ही विचारोत्तेजक है आप की शंकाएं हमारी शंकाओं से मिलती-जुलती है ऊंचाईयों पर तिर्थ स्थान का निर्माण, देव विमान का होना, आदि परन्तु एक बात मन में उत्पन्न होता है की इस युग में सब कुछ स्वयंचलित बटनों पर उंगलियों पर automatic चलता है मशिनो के सहारे , मानव जीवन मशिनों की सहायता से चल रहा है परन्तु वो युग ऐसा था जहां मानव जीवन मनुष्य की ताक़त, श्रम, और स्वंय मनुष्य के लिए मनुष्य के द्वारा चलता था पंखा भी मनुष्य हाथ से चलाता था और हल भी स्वयं जोतता था आज रसोईघर से लेकर सौचालय तक मशिन काम करतीं हैं मानव श्रम घटता जा रहा है पानी नल में आ जाता हैं तभी महीलाओं को सर पर उठाना पड़ता था श्रम घटता गया आलस्यपूर्ण जीवन में नयी नयी बिमारीयां का समावेश होता गया कल्पनाओं से परे तकनीकी शिक्षा और कल्पनाओं से परे रोग कौनसा युग सही है वो या यह 🙏 आपका लेख पढ़ा बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई धन्यवाद सा
Advocate स्वर्ण माला पोखरना
नीव का निर्माण फिर से
ReplyDeleteनेह का आह्वान फिर से।
हम हमेशा अटकते ही रहे इसलिए भटकते ही रहे।
जिस दिन जान ले मैं कौन उस दिन भटकाव खत्म।
जिज्ञासाएं तो कई है लेकिन समाधान भुत के गर्भ में छिप गए।
🙏🏻
करुणा कोठारी।
बेहतरीन
Deleteबहुत सुन्दर तथ्यपरक जानकारी के लिए साधुवाद
ReplyDeleteThank you Swaroop bhai for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteशाह जी श्री मर्यादाकुमार जी आपका लेख बहुत ही जानकारी युक्त व जिज्ञासाओं को शांत कर समझने में बहुत ही सटीक व ज्ञान वर्धक लगा।
ReplyDeleteधन्यवाद सा
बाबुलाल मेहता
सुरत
Thank you shah ji Babulal ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteबहुत ही सुंदर ज्ञानवर्धक आलेख, जिसमें शून्य को महत्व दिया गया है हम सब पढ़ते हैं, जानते हैं, लेकिन कभी गहराई से सोचा नहीं था आज आपने गहराई से विचार करने की दिशा प्रदान की है।
ReplyDeleteहर युग की अपनी विशेषताएं होती है आगे बढ़े और आत्मा को परमात्मा बनाएं यही बौद्ध बोध हमें आपके आलेख से प्राप्त होता है ।
Thank you yogeeta ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteबड़ा ही सूक्ष्म निरीक्षण है इस लेख मै।
ReplyDeleteशून्य का आविष्कार जब हुआ उसके पहले भी शायद शून्य को और किसी स्वरूप में समझा एवम् प्रयोग में लिया जाता होगा।
हर युग में अपनी जरूरत के हिसाब से आंकड़ों का प्रयोग होता रहा है।जैसे नए आविष्कार सामने आए वैसे फिर आंकड़ों मै स्पष्टता आती रही।
कनक कोठारी
ho sakta hai... Thank you Kanak Bhai for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Delete🙏🤞
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