गीता का निष्काम कर्मयोग - वर्तमान की आवश्यकता
श्रीमद्भगवत गीता का नाम सुनते ही मन मे
कुरुक्षेत्र की रणभूमि मे अर्जुन को उपदेश देते हुए श्री कृष्ण का दर्शन अंतर्मन में स्वतः प्रस्फुटित हो जाता है। गीता महाभारत
के भीष्म पर्व मे उल्लेखित कृष्ण-अर्जुन का संवाद है। गीता की पृष्ठभूमि
महाभारत का युद्ध है। अर्जुन जब युद्ध मे भावनात्मक आवेग मे आकार अपने क्षात्र
धर्म और कर्तव्य से विमुख हो रहे थे, तब श्री कृष्ण ने अर्जुन के ज्ञान चक्षु खोलने
हेतु गीता के उपदेश दिये। गीता की व्याख्या समय सामी पर विद्वान मनीषियों ने अपने-अपने
अनुसार की है। गीता के उपदेश कालखंड, स्थान, जाति, उपजाति और धर्म से परे है। मानव जीवन दिन और रात की तरह है। जिस प्रकार दिन व
रात समान नहीं होते, उसी प्रकार मनुष्य की परिस्थितिया भी सदैव एक समान
नहीं होती है। मानव का स्वभाव है की वह हमेशा सुख की इच्छा करता है। परंतु
जिस तरह सदैव दिन नहीं हो सकता वैसे ही सदैव सुख के दिन भी नहीं हो सकते। अच्छा
और बुरा ये मनुष्य के साथ जीवनभर चलते है। यही अटल सत्य है। परंतु फिर भी
मनुष्य अज्ञानतावश मोहपाश मे फंस कर अपनी परिस्थितियो का दोष कभी दूसरों पर तो कभी
अपने भाग्य पर मड़कर स्वयं को तसल्ली देता रहता है।
गौतम बुद्ध के अनुसार मनुष्य के दुख का कारण
उसकी इच्छाए है जिनकी पूर्ति के लिए वह जीवन भर प्रयत्न करता है,
परंतु ये भी सत्य है की सुख की इच्छा करना मनुष्य का स्वभाव है। अगर ऐसी
इच्छाओ को सभी मार पाते तो क्या सभी मनुष्य गौतम बुद्ध नहीं हो जाते??
काल के अलग-अलग खंडो मे अवतरित हुए महापुरुषों ने
इस प्रश्न के निवारण के लिए अनेकों उपदेश अपने शिष्यो और आमजन को दिए है। किन्हीं महानुभाव
ने इच्छाओ का त्याग आवश्यक माना तो किन्हीं ने सन्यास इसका निवारण बताया। गीता का
गूढ़ रहस्य शायद इन सब व्याख्याओ से ऊपर है। यही कारण है की भारत ही नहीं अपितु
पश्चिम के विद्वानो द्वारा भी गीता की भूरि भूरि प्रशंसा की गयी है।
मोक्ष
प्राप्ति का मार्ग - श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों को सामूहिक
रूप से प्रस्थानत्रयी कहा जाता
है। जिनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का तात्त्विक विवेचन है। गीता की धार्मिक नहीं बल्कि दार्शनिक विवेचना ने ही सम्पूर्ण विश्व
के विद्वानो का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। गीता का सर्वोच्च विचार मनुष्य द्वारा
मोक्ष की प्राप्ति को लेकर है - मोक्ष की प्राप्ति ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्तियोग द्वारा संभव है। गीता के विभिन्न टीकाकारों
ने इनमें से हर मार्ग की महत्ता बताकर उसकी प्रधानता स्थापित की है। अद्वैत
वेदान्त के जनक जगद्गुरू शंकराचार्य द्वारा ज्ञानयोग को प्रधान बताया है, जबकि कर्म और भक्ति योग को उसका सहायक कहा है।
वैष्णव संत रामानुजाचार्य जी द्वारा भक्तियोग को सर्वप्रमुख कहा गया है। जबकि आधुनिक
विचारको जैसे बाल गंगाधर तिलक और महतमा गांधी ने कर्मयोग को प्रमुखता दी है। यदि वास्तविक अर्थो मे देखे तो गीता प्रत्येक व्यक्ति को उसकी
क्षमता के अनुसार कर्म करने हेतु प्रेरित करती है। जिसे किसी विषय का ज्ञान नहीं
वह भक्ति तो कर ही सकता है। मध्यकाल मे इसी भक्ति मार्ग पर चलते हुए सूरदास, कबीरदास, मीराबाई जैसे संतो
ने उस अंधकार भरे युग मे भी भारतीय समाज का मार्ग प्रशस्त किया ।
निष्काम
कर्मयोग - गीता का कर्म निष्काम कर्म पर बल
देता है। इसका सामन्य अर्थ है निष्काम भाव से कार्य करते रहना अर्थात कर्म का कारण
फल की इच्छा पर नहीं बल्कि कर्तव्य की इच्छा से प्रेरित होना चाहिए। निष्काम कर्म
का मार्ग ही व्यक्ति को बंधन से मुक्ति की और ले जाने मे सक्षम है। गीता के दूसरे
अध्याय के 47वे और 48वे श्लोक मे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि “तुम्हारा
अधिकार कर्म करने मे ही है,
उसके फल पर नहीं, अतः फल की इच्छा से प्रेरित होकर तुम्हें
कोई कर्म नहीं करना चाहिए। सिद्धि-असिद्धि मे समभाव रखते हुए तथा फल की आकांशा का
त्याग करते हुए तुम कर्म करो, यही कर्मयोग है।”
कर्म
क्या है?- कर्म का अर्थ गीता मे स्वधर्म
को कहा गया है। इसका अर्थ है की मनुष्य को अपने अपने वर्ण के अनुसार ही कर्म करना चाहिए।
वर्ण का निर्धारण जन्म नहीं अपितु कर्म होंगे,
गीता इसका अनुसरण करती है। गीता के चौथे अध्याय के 13वे श्लोक मे श्रीकृष्ण का कथन
है कि विभिन्न वर्णो के विभाजन का आधार कर्म है मनुष्यों के जन्म नहीं।
स्थिरप्रज्ञ
कौन है?- गीता के उपदेश मे स्थिरप्रज्ञ
की धारणा अति महत्वपूर्ण है। गीतानुसार निष्काम कर्मयोग का पालन करने वाला व्यक्ति
ही स्थिरप्रज्ञ कहलाता है। गीता के दूसरे अध्याय के 55, 56 और 57वे श्लोक मे श्रीकृष्ण ने कहा है “जिस
मनुष्य ने अपनी समस्त मनोकमनाओ को नियंत्रण मे कर लिया, जो लाभ - हानी, जय - पराजय तथा सुख - दुख जैसी
विरोधी गतिविधियो मे भी समभाव रखता है। अर्थात जो सुख मे सुखी और दुख मे दुखी नहीं
होता और किसी के प्रति राग - द्वेष से मुक्त रहता है वही स्थिर प्रज्ञ है।”
निष्कर्ष - सामान्य मनुष्यो के लिए यह संभव नहीं है की उनके किसी
कर्म में कोई कामना न हो। परंतु फिर भी यदि मनुष्य अपनी कामनाओ को सीमित कर संतोषी
प्रवृति का हो जाए तो जीवन के प्रति उसका नजरिया अधिक परिपक्व हो सकता है जो
उसे घृणा, लालच, अभिमान तथा भ्रष्ट आचरण आदि कुतृष्णाओ से परे रखेगा ।
पूर्णतया स्थिरप्रज्ञ होना भी संभव नहीं है। परंतु इस आदर्श की तरफ
बढ़ने का प्रयास तो हम सभी द्वारा किया ही जा सकता है। गीता मे सर्वाधिक ज़ोर कर्मयोग
पर ही दिया गया है। गीता के 12वे अध्याय के 12वे श्लोक का भावार्थ है कि निरंतर
अभ्यास से ज्ञान बेहतर है, ज्ञान से भक्ति
बेहतर है और भक्ति से अच्छा है कर्मो के फल की आकांशा से मुक्ति। हालांकि मनुष्य
अपने स्वभाव के अनुसार मार्ग का चयन करने के लिए स्वतंत्र है। गीता का नीतशास्त्र
कठोर भी नहीं है इसमे सहज मानवीय भावनाओ के लिए गुंजाइश है।
गीता नैतिकता मे अपवाद स्वीकार करती है। जैसे अनावश्यक हिंसा
स्वीकार्य नहीं है परंतु कर्तव्य निर्वाह के लिए आवश्यक हो तो वह स्वीकार्य कि जा
सकती है। यही कारण है कि गीता का ज्ञान,
दर्शन और उसकी विवेचना आज भी विश्व के विद्वान मनीषियों के बीच प्रासंगिक है।
🙏
ReplyDeleteअच्छा प्रयास
ReplyDelete,🙏
DeleteBahut Sundar
ReplyDeleteधन्यवाद देवांग सा
Deleteगीता को समझना और अपने जीवन में कार्यान्वित करना हर युग की जरूरत है।
ReplyDeleteआपका विवेचन प्रशंसनीय है।
कनक कोठारी
true, Geeta is universal, Thank you Kanak bhai ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteसार्थक लेखन। बहुत बढिया।
ReplyDeleteThank you saa for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
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