जैन धर्म के सिद्धांत

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जैन धर्म के सिद्धांत -

भारत में प्राचीन काल से धर्म की दो परम्पराएं प्रमुख रही है।  प्रथम सनातन धर्म की  जिसे आज हिन्दू धर्म कहते है , दूसरी श्रमण धर्म परंपरा जिसमें जैन एवं बौद्ध धर्म समाविष्ट होते है।  इस परम्परा में जैन धर्म का प्रवर्तन प्राचीन है एवं २४ तीर्थंकरों की सुव्यवस्थित प्रणाली में जैन दर्शन और सिद्धांत गुम्फित है।  जैन धर्म के सिद्धांत अहिंसा , संयम , अपरिग्रह , श्रम और स्वालम्बन पर आधारित होने के कारण इसकी कुछ  विलक्षण  विशेषताए है जो इसे वैचारिक स्तर पर अन्य धर्मो से भिन्न करती है।  जैन धर्म के कुछ सिद्धांतो की संक्षेप में हम यहाँ चर्चा करेंगे। 

. जैन धर्म यह मानता है कि यह विश्व अनादि ,अनंत और शाशवत है।  इसका कोई कर्ता या सृष्ट्रा नहीं है।  जड़ और चेतन की सत्ता अनादि काल से अस्तित्व में है और इनकी अवस्थाएं  बदलती रहती है  . उत्पाद -व्यय और ध्रौव्य ये भगवान् महावीर की अनुपम दें है।   

. ईश्वर नाम का कोई तत्व इस सृष्टि का नियंता या निर्माता नहीं है हर आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है।  व्यक्ति कर्मो का आवरण क्षीण करके , तप और संयम के माध्यम से, आत्मा का शुद्ध चैतन्य ( कर्म मल रहित ) अवस्था को प्राप्त करता है , यही सिद्धता मोक्ष है।  हर जैन धर्मावलम्बी का  यही परम लक्ष्य होता है।  जैन धर्म अवतारवाद की अवधारणा को नकारता है।  सभी जैन तीर्थंकरों एवं सिद्ध आत्माओं ने तप -संयम से कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त किया है। 

.जीव की आत्मा ही सुख - दुःख की कर्ता और भोक्ता है , अन्य कोई सुख दुःख नहीं देता।  भगवन महावीर का सूत्र वाक्य है " अप्पा कत्ता विकत्ता  दुहाण  सुहाण "

. मुख्य तत्व जीव -अजीव है।  जीव के दुखों  का कारण आश्रव है।  मिथ्यात्व ,मोह, प्रमाद एवं काम भोगों आश्रम से कर्म बंधन होता है।  अशुभ योगों से पाप और शुभ योंगों से पुण्य कर्म का बंध होता है।  संवर और निर्जरा कर्म का निरोधक भाव है और सब कर्मो से मुक्त होने की अवस्था ही सिद्ध गति है जैन धर्म में कर्मवाद की अति सूक्ष्म और गहन मान्यताएं है 

. सारी  विश्व की रचना  द्रव्यों के आधार पर है। जीव द्रव्य जिसमे चेतना का गुण है , धर्मास्तिकाय जीव -अजीव के चलने में सहायक , अधर्मास्तिकाय  स्थिर रखने  सहायक , आकाशस्तिकाय अवकाश देने वाला , काल द्रव्य उपभोग करने वाला और पुद्गल द्रव्य मिलान और विघटन करने वाले होते है। जीव को छोड़कर शेष सभी द्रव्य अजीव है।  सबके द्रव्य - क्षेत्र - काल - भाव गुण अलग अलग है एवं पुद्गल को छोड़कर सबका कोई रूप नहीं है। 

. मुनि चर्या के लिए पांच महाव्रत ( अहिंसा ,सत्य ,अपरिग्रह , अचौर्य एवं ब्रह्चर्य ) एवं श्रावक  १२ अणुव्रत की अनुपालना आवश्यक है।  महाव्रत पालना अखंडित और असीमित होते है। 

.  जैन धर्म जातिवाद  नकारता है।  जाति तात्विक और स्थाई नहीं है।  व्यक्ति के वैराग्य का आकलन उसके तप और संयम से होता है  कि उसकी जाति से. जैन  प्रमुख घोष है " व्यक्ति जन्म से नहीं कर्म से महान होता है " .

. सत्य अनंत धर्मा है  अत: उसका एक दृष्टी से निरूपण नहीं  सकता है , उसे एकांगी कोण से  नहीं देखा जा सकता है।  भगवन महावीर का अनेकांत वाद / स्याद्वाद विश्व की सभी समस्याओं के हल का  मूलमंत्र है।हम सब अपना अपना सत्य देखते है  , दूसरे  के सत्य को समझने का प्रयत्न नहीं करते और यहीं आग्रह सभी धार्मिक- सामाजिक और आर्थिक समस्यों की जड़ है।  स्याद्वाद  सात नय से अभिव्यक्त  है  -" है" ,"नहीं है" , "है और नहीं है" , "कहाँ नहीं जा सकता "," है -किन्तु कहाँ  नहीं जा सकता"  , " नहीं है -  किन्तु कहाँ  नहीं जा सकता"  और सातवां  नय है- " हैं  ,नहीं हैं और  कहाँ नहीं जा सकता" .

. क्षमा पावना और प्रतिक्रमण जैन धर्म का प्रमुख अंग है। संसार   के सभी प्राणियों के  प्रति मैत्री भाव रखना एवं निर्धारित समय अपनी भूलों एवं स्वखलनों  लिए क्षमायाचना देना एवं मांगना आवश्यक है , इसे प्रतिक्रमण कहते है।  ये दैनिक , पाक्षिक , चतुर्मासिक और संवत्सरिक  होते है।  

१०. हर प्राणी की सत्करणी अच्छी  सराहनीय है।  जैन धर्म में "अन्य धर्म सिद्ध "यानि कि अन्य धर्म का मतालम्बी भी सत्कर्म करके मोक्ष जा सकता है ,ऐसी उदार  भावना है।  

जैन धर्म के कुछ सिद्धांतो  को संक्षेप में बताकर गागर  में सागर भरने का प्रयास किया है।  जैन धर्म के सिद्धांत आज के वैज्ञानिक युग में भी शाशवत है , प्रायोगिक है जितने भगवान महावीर के समय थे , यहीं जैन  धर्म को कालजयी बनाता है।  

जिनेन्द्र कुमार कोठरी 

अंकलेश्वर

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