आवश्यकताओं का सीमरेखन देता है आत्मसंतोष

 

आवश्यकताओं का सीमरेखन देता है आत्मसंतोष

लेख का आरंभ हम राष्ट्र पिता महात्मा गांधी जी की घटना से करते है , बापू जब साबरमती आश्रम अहमदाबाद में रहते थे और साबरमती नदी में वर्ष पर्यंत पानी का प्रवाह बहता था , गांधी जी प्रतिदिन नीम दातुन कुल्ला आदि आवश्यक कार्य के लिए साबरमती नदी से एक लोटा पानी इस कार्य के लिए लेते थे,एक दिन बापू के सहयोगी बोले " नदी में अथाह जल राशि है, आप अधिक पानी का प्रयोग करे , प्रक्षालन आदि कार्य अधिक सुगमता से होगा " बापू ने उत्तर दिया " मेरी जरूरत एक लोटे से पूरी हो जाती है तो अधिक पानी का उपयोग मेरा लोभ होगा " राष्ट्रपिता ने स्पष्ट किया " The world has enough for everyone's need, but not enough for everyone's greed."

हम अपने चारो ओर नजर दौड़ाएं तो देखेगे , हमारी अनिवार्य जरुरते सीमित है - उन्हें पूरा करने के प्राकृतिक संसाधन पर्याप्त है.  हमारी लालसा - लोभ - इच्छाएं अनंत/असीम है ,उन्हे पूरा करने के संसाधन अपर्याप्त  है. जीवन निर्वाह की तीन - चार प्रधान जरूरतें है - भोजन ,वस्त्र , आवास और शिक्षा  रोटी और कपड़ा शरीर की सहज मांग है , सभ्यता के विकास क्रम में आवास  शिक्षा भी जरूरी जरुरते बन गई , लेकिन इनकी पूर्ति में सुख - विलास - अधिक लालसा का भाव जुड़ जाता हैं तो ये अपेक्षाएं गौण हो जाती है और अतृप्ति - असंतोष की  अंतहीन क्षृंखला बन जाती हैं. वर्तमान के प्राकृतिक संसाधनों का अति दोहन  , हिंसा , उपभोक्ता वाद, असहिष्णुता, आदि समस्याओं का ये मूल है । आज ये समस्याऐ इस स्तर पर पहुंच चुकी हैं की आवश्यकता का सीमाकरण ही मानव सभ्यता का संरक्षण कर पाएगा  

हमारे सामने दो शब्द है " आवश्यकताओं का सीमाकरण एवम् आत्मसंतोष "   सीमाकरण का सरल शब्दों में अर्थ है , "अपनी इच्छाओं - जरूरतों को एक ऐसे दायरे में बांध देना, जिससे सुचारू रूप से जीवन यापन भी हो और हम अनावश्यक लोग/ लालच/ लालसा से भी बचें।" आत्मसंतोष का सीधा सा अर्थ है " ऐसा कोई भी कार्य जिससे स्वयं की आत्मा को आत्मिक तृप्ति मिले, आत्मा को एक सुखद एहसास हो और अनिवार्य रूप से जीवन का आध्यात्मिक पक्ष उजला बने।"  

 इन दोनों (आवश्यकताओं का सीमाकरण एवम् आत्मसंतोष) तक पहुंचने का   व्यवहारिक समाधान है आचार्य श्री तुलसी प्रवर्तित अणुव्रत जीवन शैली  अणुव्रत यानि छोटे छोटे संकल्प , जिनसे जीवन में आत्म - अनुशासन आए , यही आत्म - अनुशासन

हमे अनावश्यक उपभोग एवम् असीम इच्छाओं से बचाएगा , इनका परिणाम होगा हमारी अवशयकताओ का सीमा करण। आत्म संतोष हमे मिलता है - बेवजह के तनाव से मुक्ति पाने पर , उचित इच्छाओं की पूर्ति पर और  कषाय कारी प्रवृत्ति के त्याग पर  इसे एक उदाहरण से समझते हैं, हमारे पास यदि वस्त्रों का ठेर होगा तो प्रतिदिन सवेरे ये तनाव रहता है , आज क्या पहने ? कहीं सप्ताह में ड्रेस पुनः तो नही पहन रहा , अरे ये साड़ी / ड्रेस तो आउट ऑफ फैशन हो गई है!अरे ये रंग तो मुझ पर नहीं फबता , ऐसे इत्यादि - इत्यादि  यहीं से शुरू होती है नित नवीन फैशन के पीछे भागना , अंधनुकरण करना ,अनावश्यक खरीदी और अर्थ का अपव्यय , ये सब जन्म देगी  ईष्या - जलन - द्वेषभाव -झूठ  को।

कुछ बिंदू सुझाव रूप में है जिससे  इसे  व्यावहारिकता में कैसे लाए समझते है ,

. सर्व प्रथम हम हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को समझे , जैसे वर्ष भर में हमे कितने वस्त्रों की जरूरत है?, वर्ष भर में हमारे खान - पान पर कितना व्यय की जरूरत है , इत्यादि सूची बनाकर, आवश्यकताओं की  सीमा ज्ञात करे , फिर उसमे आप चाहे तो कुछ एडजस्टमेंट (+/-)कर सकते है  , एक वर्ष के लिए या कोई भी समयावधि के लिए सीमा से अधिक वस्तुओ का उपभोग छोड़ दे , ये हो जायेगा आवश्यकताओं का सीमा करण 

. जब अनावशयक उपभोग रुक जाएंगे , तो फैशन के पीछे भागना, देखा-देखी बंद , अर्थ का अपव्यय नहीं और इन सबका परिणाम होगा आत्म संतोष।

. एक साथ सीमाकरण   करे , प्रायोगिक रूप से , थोड़े थोड़े समय के लिए कर, फिर उसे बढ़ाए।

. जब आप कोई अनावश्यक वस्तु का उपभोग कम करते या छोड़ते है तो इससे आपके आत्म विश्वास एवम् मनोबल में भी वृद्धि होती हैं, जो आपको आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में सहायक होगी 

. अपने पारिवारिक व्यक्तियों को अवश्य जानकारी दे , साथ रखे , प्रोत्साहन दे , इससे आप सुगमता से आवश्यकताओं का अल्पीकरण कर पाएंगे  

. हम साधु/संतो / साध्वियों से भी प्रेरणा ले सकते है, समाज के ऐसे व्यक्तियों से जो सादा जीवन उच्च विचार को जी रहे हो या महापुरषों की जीवनियों से भी प्रेरणा लेकर भी जीवन इच्छाओं का सीमकरण कर आत्म संतोष पा सकते है 

आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने सपष्ट कहां " जीवन की आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे केवल जीवन धारण की साधन मात्र है, लेकिन वह साध्य नहीं है। जीवन का साध्य है - उसकी पवित्रता जो जीवन चलाने के लिए नहीं किंतु से ऊर्ध्व मुखी और विराट बनाने के लिए है। आवश्यकताओं का सीमा करण और आत्म - संतोष वस्तुत:  एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।जब हमारी इच्छाओं का /हमारे उपभोग का उचित अल्पी करण होगा तो आत्मसंतोष/ प्रमोद भाव/ मैत्री भाव अपने आप हमारे भीतर  जाएगा।  इसी तरह आत्म संतोष की भावना होगी तो इच्छाओं का अल्पी करण स्वयंमेव हो जाएगा।

अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण जी की षष्ठी पूर्ति वर्ष पर , अणुव्रत जीवन शैली को पहले प्रायोगिक. फिर संपूर्ण रूप से अपनाकर हम अपनी इस आध्यात्मिक आयोजन में सहभागिता सुनिश्चित करें।

जिनेंद्र कुमार कोठारी (अंकलेश्वर)

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