कर्ज जाल में फंसे देश - समाधान अणुव्रत का आर्थिक दर्शन

आधुनिक अर्थव्यवस्था एवं बाज़ार व्यवस्था में Debt Trap ( क़र्ज़ जाल ) आधुनिक अर्थव्यवस्था एवं बाज़ार व्यवस्था में Debt Trap ( क़र्ज़ जाल ) शब्द प्रयोग बार बार होता है।  विश्व के अनेक अल्प विकसित एवं विकासशील देश विदेशी क़र्ज़ के जाल में फसतें जा रहे हैं।  अनेक देशों की आर्थिक स्थिति दिवालियापन के कगार पर पहुँच गई है।  हमारे पड़ोसी देशों में जब इस तरह की घटनाएँ हुई तो देश मे जब इस तरह की घटनाएँ हुई तो देश में एक नई बहस  ने भी जन्म लिया कि जो  मुफ़्त बाँट  (  freebies ) को प्रोत्साहन देने वाली घोषणाएँ कहीं भारत खासकर राज्यों को Debt Trap में  फंसा दे.

Debt Trap या क़र्ज़ जाल एक ऐसा चक्रव्यूह हैं जिसमें एक देश या राज्य ऐसी स्थिति में  जाता है की क़र्ज़ का पुन: भुगतान करने के लिए दूसरा क़र्ज़ लेना पड़ता है और क़र्ज़ भार की एक श्रृंखला बन जाती है।  राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में ( GDP ) में  ऋण और उसके ब्याज भुगतान का प्रतिशत बढ़ता जाता है , अंतत:  वह देश ऋण  पुन: भुगतान नहीं कर पाने की स्थिति में दिवालिया हो जाता है  या फिर अंतर राष्ट्रीय मौद्रिक कोष ( IMF ) जैसे संस्थाओं से कड़े शर्तो पर सहायता लेता है और उसकी आर्थिक स्वायत्ता छिन  जाती है।  एक देश का debt to gdp ratio जितना कम होगा उतना ही वो देश आर्थिक रूप से मजबूत माना जाता है.

आधुनिक अर्थशास्त्र उत्पादन एवम् विनिमय के सिद्धांत पर कार्य करता है , More Production - More Revenue - More Employment, इस हेतु बाजार वस्तुओं की कृत्रिम मांग तैयार करती हैं और ग्राहक अपनी आय का अधिकांश हिस्सा इन पर खर्च करता है। पुराने अर्थव्यवहार में आवश्यकता और पूर्ति का सिद्धांत कार्य करता था। विकसित या उन्नत अर्थ संपन्न देशों ने विकासशील / अल्पविकसित देशों में अपना बाजार खोज लिया है तथा उन देशों की स्वयं के  आर्थिक आधार को पंगु बना दिया है  ऋण जाल में फसने के निम्न कारण नजर में आते हैं

. सस्ते कर्ज के नाम पर, रोड - बंदरगाह - एयरपोर्ट विकास के नाम पर अल्प विकसित देशों को पैसा देना.

. अपने स्वयं के संसाधनों के अतिरिक्त संसाधनों की कामना .

. राजनैतिक भ्रष्टाचार, जहां नीति निर्माता स्वयं के हितों को देश के हित से ऊपर रखे .

. आर्थिक अव्यवस्था , सरकारी खर्चों में वृद्धि , अनत्पादक खर्च ( पेंशन, सब्सिडी), मुफ्त बांट ( freebize) ये सभी ऋण भार बढ़ा देते है .

. योजनाओं का समय पर पूर्ण नहीं होना  , इससे लागत में वृद्धि होती है और Rate of Returns भी नहीं मिलते।

अणुव्रत का आर्थिक दर्शन इस स्थिति का समाधान प्रस्तुत करता है .आचार्य श्री महाप्रज्ञ की पुस्तक " महावीर का अर्थशास्त्र" और " नैतिकता ,चरित्र और अणुव्रत " में इस विषय पर चर्चा की गई है . समाधान के कुछ बिंदु निम्न हो सकते है ,

. आज के अर्थशास्त्र में भूतिकवाद को केंद्र में रखा है. अणुव्रत के अर्थ सूत्रों में व्यक्ति केंद्र में है . भगवान महावीर ने स्पष्ट किया  " जितनी अनिवार्य आवश्यकता है , उतना ही रखो , उतना ही उपभोग करे" इच्छा का सीमाकरण करे। चाणक्य अपने ग्रंथ अर्थशास्त्र में लिखते हैं" सुख का मूल है धर्म, धर्म का मूल है अर्थ, अर्थ का मूल है राज्य और राज्य का मूल है इंद्रिय जय" . जो हमारे संसाधन है उनमें ही संतुष्टि .

. अणुव्रत आवश्यकता का तीन वर्गीकरण करता है, पहला compulsory, दूसरा comfert और तीसरा luxery. रोटी - कपड़ा - घर - शिक्षा हमारी मूलभूत जरूरतें है . Luxery और comferts की कृत्रिम मांग तैयार की जा रही हैं, उनसे दूर रहना ही श्रेयस्कर है. गैर जरूरी वस्तुओं का आयात देश के ऊपर आर्थिक भार बढ़ाता है .

. अनैतिकता ऋण जाल में trap होने की बड़ी वजह है. अर्थनीति के साथ नैतिकता जरूरी है , नीतिमत्ता के बिना किया गया विकास विनाशकारी होता है.जिन जिन देशों ने विदेशी कर्ज लेकर देश में रोजगार सृजन का मॉडल अपनाया वहां चंद लोगो की संपत्ति में बेहतशा वृद्धि हुई कारण योजना क्रियान्वयन में अनैतिकता .

. प्रत्येक राष्ट्र को अपने आर्थिक विकास का ढांचा स्वयं के संसाधनों ( मानवीय एवम् प्राकृतिक) पर करना चाहिए,जैसे भारत का आर्थिक मॉडल ऐसा हो जिसमे अधिक से अधिक मानव रोजगार का सृजन हो और ऐसी तकनीक विकसित की जाए जिससे आयात के ऊपर निर्भरता कम हो, मनरेगा योजना / Make in India  इसका बढ़िया उद्धरण है. विदेशी ऋण लेने वाले राष्ट्र तकनीक, कच्चा माल एवम् संसाधनों के लिए भी दूसरे देशों पर निर्भर रहते हैं, इस कारण से पूंजी का जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता है.

. सामाजिक अनुशासन के साथ साथ आर्थिक अनुशासन भी जरूरी है . कुशल वाहन चालक का योग भी सही वाहन संचालन के लिए आवश्यक है, इसी तरह जीवन निर्वाह के लिए वस्तु का उपभोग आवश्यक है किंतु वर्ग संघर्ष - सत्ता संघर्ष अनावश्यक है . मूलभूत वस्तुओं का विचार किए बिना राष्ट्र गैर जरूरी कार्यों में अपने संसाधनों को खर्च कर देते है और कर्ज के जाल में फंस जाते हैं.

. कार्ल मार्क्स की साम्यवाद की अवधारणा पुस्तकीय रूप में ठीक है लेकिन आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी लिखते है कि " साम्यवाद के साथ अहिंसा और अध्यात्म का समन्वय किया जाता तो इसका स्वप्न सही रूप में साकार होता" . शोषण मुक्त - संविभागी व्यवस्था में debt trap की समस्या का अस्तित्व ही नहीं होता .

 ऋण लेने का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह होता है कि राष्ट्र अपनी आर्थिक अस्मिता खो देता है, कर्ज देने वाले राष्ट्र उसकी अर्थनीति तय करते हैं. आमजन पर करो का बोझ बढ़ जाता है और ऋण  लौटा पाने की स्थिति में उस देश के संसाधनों पर एवज में कब्जा कर लिया जाता है जैसा कि चीन ने श्रीलंका के हंबनटोटा पोर्ट को ले लिया . हर राष्ट्र को अपनी समस्या का समाधान स्वयं के भीतर खोजना होगा. अति उपभोग वाद और अभाव दोनो ही स्थितियां अमान्य है , इच्छाऐं  अनंत होती है लेकिन प्रथमिकत्ताए तय की जाए ताकि अधिक से अधिक आबादी की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हो सके तभी सही मायने में राष्ट्र विकसित हो पाएंगे और debt trap से अपने को मुक्त रख पाएंगे .

हर देश में उत्पादन - कृषि एवम् सेवाएं आर्थिक प्रगति का मापदंड होती है इन सबको हासिल करने में नैतिकता, संयम,प्रामाणिकता और मानवीयता आवश्यक तत्व होना चाहिए तभी पूंजी के मीठे फल हमे प्राप्त होंगे. अंत में -भगवान महावीर की भाषा में जो सुविधा शारीरिक ,मानसिक,भावनात्मक स्वास्थ्य को हानि  पहुंचाए वो सुविधा मान्य है .

जिनेन्द्र कुमार कोठरी

अंकलेश्वर 

Comments

  1. पूर्णतः संतुलित आलेख। जब तक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सभी अपरिग्रह का पालन नहीं करेंगे समस्याओं से मुक्ति असंभव है। अपरिग्रह की उपेक्षा करके किया गया विकास आत्मघाती होगा, इसमें संदेह नहीं। सार्थक आलेख के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ!. seetaram ji from delhi on whatsapp

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  2. Very Nice Article.
    On Karz.
    Aur wo bhi Niyati ke saath ka sanklan.
    Very Nice 👍. H R Shah Ankleshwar

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  3. यह लेख विश्व की ताज़ा किंतु चिंताजनक स्थिति पर चिंतन एवं समाधान दोनों प्रेरित करता है। लेखन शैली भी जानदार है।🌹
    जिनेन्द्र जी को अभिनंदन 🙏. Ravi Jain Ankleshwar

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  4. Good article 👌👌👌 Sudha Vadgama Ankleshwar

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  5. कर्ज जाल का बहुत सटीक विश्लेषण।👍 Vinod Kumar Neema Indore

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