स्वावलंबन

 


स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के  अंतर्गत  कहावतों पर पापा  सोहन राज जी कोठारी द्वारा लिखे गए लेख द्वारा बताया गया कि स्वावलंबन व श्रम कितना जरूरी है। हम वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो इस कोरोना काल ने स्वावलंबन पर सचेत कर दिया।  वही सुखी है जो स्वाबलंबी है, अन्यथा कष्ट उठाने पड़ेंगे । इस लोकोक्ति पर उनका लिखा गया यह लेख वर्तमान में भी हमें प्रेरणा दे रहा है ।

-- मर्यादा कुमार कोठारी

बैठक तपे जद सूत कते

इस लोकोक्ति को साधारण शब्दों में भी जीवन की सफलता व श्रम का एक महत्वपूर्ण संकेत छिपा है। यह बात सही है कि पुराने जमाने में जब देश भर में गांव स्वावलंबी थे तब कपड़े की बुनाई का सारा कार्य छोटी-छोटी इकाईयों के माध्यम से गांव में ही होता था। गांव-गांव में अनेक घरों पर कार्मिक चरखा कात कर रूई से सूत के डोर बनाते, जिससे अन्य कार्मिक अपने घरों में ताना-बाना के पट लगाकर बुनाई करते, कपड़ा तैयार करते। उससे गांव की आवश्यकता पूरी हो जाती। विशिष्ट कलाविद कार्मिक इसी प्रकार रेशम व ऊन कातकर रेशमी व ऊनी कपड़ों की बुनाई करते, उस पर अपनी कलात्मकता का प्रयोग करते। जिससे वह समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के या विशेष पर्व अवसरों के लिए उपयोगी वस्तु बन जाती। इससे सारा देश स्वावलंबी, स्वाभिमानी व  समृद्ध था। विषमता, संघर्ष, पराधीनता या विपन्नता से समाज आक्रांत नहीं था। उस समय यह एक महत्वपूर्ण सूत्र था कि सतत श्रम साधना करो और उससे उपार्जित धन का सेवन करो। ताकि जीवन सरल, सात्विक व समृद्ध बना रहे। उसी  सूत्र को लोकोक्ति से प्रकट किया गया कि जब तक पूरी मेहनत नहीं की जायेगी, कार्य सम्पन्न नहीं होगा यानी इतनी मेहनत करो कि चर्खे पर बैठे बैठक तप न जाए एवं तब तक इसका फल नहीं मिलेगा यानी सूत कतकर तैयार नहीं होगा। जीवन में श्रम, उधम, पुरूषार्थ के महत्वांकन का सार इस लोकोक्ति में छिपा है। हम आज देख रहे है,  कि जब से हमारे आय के स्रोतों में बिना श्रम किए धन का अर्जन करने की प्रवृति जगी है, तब से समाज में विश्रृंखलता आई है।  बिना श्रम जूआ, तस्करी, कर-चोरी या अप्रमाणिकता से अर्जित धन, जिन्हे आज की भाषा में काला धन या आसान पैसा कहा जाता है, के उपयोग ने जहां एक ओर मनमाने ढंग से उसका दुरूपयोग करने, अपने अहं का प्रदर्शन करने और जीवन में नानाविध व्यसनों का पोषण करने में सारे समाज के सौहार्द, आत्मीयता व अनुशासन को विघटित कर दिया है, वहां दूसरी ओर समाज का बहुलांश निरंतर विपन्नता के गर्त में तेजी से फिसलता जा रहा है। इसका व्यापक परिणाम विषमता, असंतोष, संघर्ष, विद्रोह, उच्छृंखलता व अराजकता के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है, कि श्रम के महत्व का पुनः अंकन किया जावे और उसकी उपादेयता यानी डिगनिटी ऑफ लेबर की पुनः प्रतिष्ठा की जाए।

भारतवर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है, कि यहां ब्राम्हण संस्कृति के साथ-साथ श्रमण संस्कृति ने भी विपुल जनसमुदाय को प्रभावित किया है। ईश्वर के प्रति सर्वधा समर्पित होकर, जब हमारे ऋषि-मुनियों ने ज्ञानाराधना की एवं भक्ति से अपने को निर्मल बनाए रखा, तब ब्राह्मण संस्कृति का  प्रदुर्भाव व पल्लवन हुआ। जब अनेक शताब्दियों बाद उसमें कुछ रूढ़ परम्पराएं स्थिर हो गई, मात्र बाहरी उपासना को महत्व दिया जाने लगा, सब कुछ नियति का खेल माना गया, तब उसके विरूद्ध अढ़ाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर व तथागत बुद्ध ने क्रांति के स्वर मुखर किए। उन्होंने यह घोषणा की कि मनुष्य के दुःख-सुख स्वयं उसके कृत कर्म है, वह स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, वह स्वयं अपने सतत् श्रम और साधना से, अपने व्यक्तित्व का आरोहरण कर अपनी आत्मा को उज्जवल बना सकता है और आत्मा से परमात्मा बन सकता है। उनके इस शीर्ष ने ‘‘श्रमण संस्कृति’’ को जन्म दिया और ‘‘श्रम से स्वतंत्रता’’ के अभियान में करोड़ों लोग संलीन हो गए। इस संस्कृति ने विश्व में अपनी छाप छोड़ दी। इस  विषय में भगवान् महावीर का सुप्रसिद्ध सुभाषित आज भी विश्रुत हैः-

कम्मुणा बंभणी होई, कम्मुणा होई खतिओ।

बइसो कम्मुणा होइ, सुद्धो हवई कम्मुणा।।

अर्थात् मनुष्य कर्म से ही क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य व शूद्र होता है, जन्म से नहीं। इतना ही नही भगवान महावीर ने तो उत्तराध्ययन सूत्र में अपने अन्त वासी शिष्य गौतम गणधर के माध्यम से संघ के सभी साधकों को  सावधान करते हुए दसवें अध्ययन  में नानाविधि हेतु दृष्टांत देते हुए  संदेश दिया है, ‘‘समयं गोयम! मा  पमायए’’ (अर्थात् गौतम, क्षण भी प्रमाद मत कर)। मेरे विचार में सजग, सतत एवं कर्मठता का जो उपदेश भगवान महावीर ने दिया, उसका मात्र उद्धेश्य यही था कि बिना सतत साधना के सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। उन्हीं के शब्दों में ‘‘विहुणाहि रयं पुरे कंड’’ (उत्तराध्ययन 10/3) अर्थात् पूर्व  संचित कर्मक्षय करने का यही सर्वोत्तम उपाय है। इसलिए उन्होंने फिर सावधान किया, ‘‘उटिठए नो पमाइए’’ (आचारांग 1/512) अर्थात् जो साधक अपने कर्तव्य-पथ पर उठ खड़ा हुआ है, वह प्रमाद न करे।

हमारे उत्तरवर्ती संत-महात्माओं ने भी श्रम और साधना की सदा प्रशस्ति की है, जैसे:-

1. विद्या धन उद्यम बिना कहा जु पावे कौन?

  बिना डुलाए ना मिले, ज्यौं पंखा को पौन?

2. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

  रसरी आवत जात है, सिल पर पड़त निशान।।

कहा जाता है, कि महात्मा नानक के पास एक श्रीमंत चांदी के थाल में बादाम का हलुआ व षट्रस व्यंजन लेकर उन्हें भोजन कराने उपस्थित हुआ, संयोग से उसी समय एक गरीब मिट्टी की तसली में, सूखी-रूखी मक्के की रोटी व सरसों की उबली सब्जी गुरूदेव के खाने के लिए लाया। नानकदेव ने दोनों को देखा, छुआ, सूंघा और गरीब की रोटी ग्रहण कर खा  कर क्षुंधा मिटाई और श्रीमंत का भोजन अस्वीकार कर दिया। श्रीमंत का चेहरा रौष से तमतमा उठा और उसने नानकदेव से इसका कारण पूछा। महात्माजी ने तुरंत श्रीमंत के लाये हुए हलवे को मुटठी में लेकर निचोड़ा तो उसमें खून की धार बहने लगी। तत्काल हाथ धोकर उन्होंने गरीब की रूखी-सूखी रोटी के  बचे हुए  टुकड़े को मुट्ठी में लेकर निचोड़ा तो उसमें मीठे गाढ़े दूध धारा फूट पड़ी। श्री नानक देव ने अभिमानी श्रेष्ठि से कहा, ‘‘तुम्हारे भोजन में अगणित श्रमिकों व गरीबों के शोषण का धन लगा है, जबकि गरीब की रोटी में उसकी कठोर मेहनत की कमाई लगी है इसलिए तुम्हारा भोजन अग्राह्य है व गरीब का भोजन शुद्ध, सात्विक व पौष्टिक है।’’ यह है श्रम में उपार्जित साधनों की शुद्धता एवं पवित्रता अनुपम उदाहरण। ‘‘आत्ममीमांसा’’ में आचार्य सामन्तभद्र ने लिखा है-

‘‘पोरूषा देव सिद्धिश्चेत् पोरूषं देवतः कथम्

पौरूषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पोरूषम्’’

उपरोक्त लोकोक्ति में हमारी सतत् श्रम और निष्ठा बनी रहने से, निश्चित ही हमारा जीवन सफलता प्रदान करेगा।

 

- श्री सोहनराज जी कोठारी 

(तेरापंथ प्रवक्ता, शासनसेवी, पूर्व न्यायाधीश)

Comments

  1. सम्मानीय भाई मर्यादा कुमार जी कोठारी सादर जय जिनेंद्र
    स्वर्गीय जज साहब का उपरोक्त लेख ज्ञानवर्धक वह शिक्षाप्रद है इससे श्रमण संस्कृति के मूल सिद्धांत के बारे में लोगों को अच्छी जानकारी मिल सकेगी जैन धर्म का तो मूल सिद्धांत कर्मवाद वह पुरुषार्थ ही है पुरुषार्थ बिना फल संभव नहीं है
    लेकिन इस कलयुग में हर कोई बिना गुठली का मेवा खाना चाहता है हर कोई चाहता है बिना परिश्रम के सब कुछ मिल जाए तो अच्छा है इसीलिए तो देवी देवताओं के यहां लोग धोक लगाने भटकते हैं ताकि सब कुछ बिना मेहनत ही मिल जाए
    लेकिन जैन धर्म कहता है ऐसा संभव नहीं फल तो जैसे कर्म करोगे वैसे ही पाओगे फिर भी अधिकांश लोग प्रयास करते हैं की कहीं देवी देवता भला कर ले धन दे दे, बेटा दे दे ,बीमारी ठीक कर ले, अगले का बुरा कर ले, यह इस युग की कड़वी सच्चाई है भेड़ चाल युग चल रहा है पाखंडी पूजे जा रहे हैं पुणीयां श्रावक जैन समाज से लगभग गायब हो गए हैं आदमी की कथनी करनी समान नहीं रही
    स्वर्गीय जज साहब श्री सोहन राज जी सा कोठारी की पुण्य आत्मा को शत शत नमन🙏🙏🙏
    आपका
    सोहनलाल सालेचा
    जसोल- सूरत

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  2. आनंद आ गया और ज्ञान भी आ गया श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति बहुत अच्छी आलेख ओम मंगलम

    सतीश शांडिल्य फतेहपुर

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  3. भाई साहब प्रणाम🙏🏻
    आपके द्वारा ये व्याख्या अध्धयन योग्य जानकारी पूर्ण है सर।

    Ashok khatang, Chennai

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