कोरोना काल : तृष्णा का निराकरण
(प्रस्तुत लेख दादाजी सोहन राज जी कोठारी (तेरापंथ प्रवक्ता व शासन सेवो) ने कुछ लोकोक्तियां पर लिखा था। वे लेख अल्प शब्दों में समग्र दर्शन के रूप में थे। उन्हीं में से एक यहां प्रस्तुत है जो वर्तमान कोरोना काल में हमें तृष्णा को दूर करने की शिक्षा देता है। संयमी जीवन जीने तथा दूसरों को देखकर देखा-देखी में ईर्ष्या भाव ना करें। अपने को जितना मिला है उसमें संतोषी रहने का प्रयास करें। यही करोना-काल ने हमें सिखाया भी है, तो यह लेख की कहावत आज भी उतनी ही प्रसांगिक है जितनी कि जब यह कही गई तब थी।)
देख पराई चुपड़ी, क्यूं ललचावे जीव
महात्मा कबीर का एक दोहा है जिसका दूसरा पद लोकोक्ति बन चुका है। दोहा इस प्रकार है-
रूखा-सूखा खाय के, ठंडा पानी पीव।
देखि पराई चुपड़ी, क्यूं ललचावे जीव।।
इस दोहे का सीधा सा अर्थ है कि व्यक्ति को जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना चाहिए व दूसरों की समृद्धि देखकर ईर्ष्याभाव या लालच नहीं लाना चाहिए। भारतीय दर्शन में संतोष को अत्यधिक महत्व दिया गया है और वस्तुतः जीवन को सुखी बनाने के लिए यह एक अमोघ मंत्र है। संतोष की महत्त्ता व्यक्त करते हुए एक प्रसिद्ध पद है-
“गोधन, गजधन, बाजीधन, स्वर्ण रत्न की खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान।।”
अर्थात् गाय, हाथी, घोड़ा, स्वर्ण, रत्न सभी प्रकार की धन-संपदा निस्सार है, अशाश्वत है अतः संतोषवृति ही श्रेष्ठ है, श्रेयस्कर है।
इन शाश्वत स्वरों की उद्घोषणा के उपरांत भी मानव-मन की यह दुर्बलता रही है कि वह न केवल अपने सुख से या दुःख से दुखी होता है किन्तु दूसरे के दुःख से अधिक सुखी व दूसरे के सुख से अधिक दुःखी होता है। इस वृति को ‘‘ईर्ष्या’’ की संज्ञा दी गई है और इसे महापाप माना गया है। क्रोध की तरह ईर्ष्या की आग भी इतनी गहन व भंयकर होती है, कि वह क्षण भर में व्यक्ति के सारे गुणों को भस्मी-भूतकर देती है और इस आवेग के वश व्यक्ति को अपने हिताहित अथवा निजता का भान नहीं रहता। क्रोध तो व्यक्ति के बाहरी आकृति पर तुरंत प्रकट हो जाता है, पर ईर्ष्या की आग अन्दर ही अन्दर धधकती है और उसका पता लगाना, सुगम नहीं होता। अतः उसके वशीभूत होकर व्यक्ति कब क्या अनर्थ कर दे? इसके बारे में स्वयं करने वाला भी अनुमान नहीं लगा सकता। कभी-कभी तो, वह ईर्ष्या व द्वेष के वशीभूत इतना भयंकर अनर्थ कर देता है, कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य अनेक प्रसंगों में, अपने दुःख से इतना दुःखी नहीं होता, जितना कि आसपास पड़ोसी, स्वजन, सगे-संबंधी के सुख से दुःखी होता है और यह है उसके अन्तर्मन में ईर्ष्या की भावना की निष्पति। भव्य महलों के पास रहने वाला, यदि झोपड़ी में बसर करे तो प्रतिदिन उठने के साथ उसके मन में भव्य महलों पर दृष्टि पड़ते ही ईर्ष्याभाव जागेगा और यह कभी स्वस्थ नहीं रह सकता।
‘‘ईर्ष्या’’ के संभावित परिणामों के बारे में एक पौराणिक गाथा बहुत विश्रुत है। दो सन्यासी भगवद् भक्ति में लीन होकर दिन के अधिकांश समय में ध्यानस्थ रहते थे व निराहार तपस्या करते थे। एक बार भगवान् ने उसकी साधना से प्रसन्न होकर, उन्हें दर्शन दिए। भगवान् उनके साधना की कसौटी करना चाहते थे, अतः भगवान् ने संन्यासी, जो उनकी दृष्टि में खरा नहीं लगता था, उसे कहा, ‘‘तुम चाहे जो वरदान मांगो; तुम्हे वह मिल जाएगा, पर ध्यान रहे कि जो कुछ तुम्हे मिलेगा, उससे दुगुना तुम्हारे साथी सन्यासी को स्वतः प्राप्त हो जाएगा।’’ भगवान् ने साक्षात् दर्शन एवं वरदान की प्राप्ति से, संन्यासी को प्रसन्नता तो हुई, पर मन में एक पीड़ा भी उत्पन्न हो गई, कि दूसरे संन्यासी को दुगुना मिला तो वह तो कहीं का नहीं रह जाएगा। यह वरदान उसके लिए अभिशाप बन जाएगा क्योंकि दूसरा सदा उससे बढ़कर दुगनी ऋद्धि-सिद्धि धन-सम्पदा का स्वामी बन जाएगा। उसके मन में पल रही ईर्ष्या विस्तार पाती गई, और उसके हृदय को ईर्ष्या ने इतना मलीन बना दिया, कि वह अपने हित की बात सोचना, तो भूल गया व साथी संन्यासी का अहित कैसे हो? इस पर विचार करने लगा। साक्षात् भगवान् से धन-सम्पदा, ऋद्धि-सिद्धि, यश-वैभव सभी कुछ पा सकता था, पर साथी को दुगना मिलने की सम्भावना ने उसकी बुद्धि को इतना आवृत कर दिया, कि इन सबके बदले उसने भगवान् से कहा! मेरी एक आंख फोड़ दो।’’ उसने सोचा, जब उसके साथी को दुगुना ही मिलना है, तो उसकी एक आंख के बदले, उसके साथी की दोनों आंखे फूट जाएगी। वह एक आंख से देख तो सकेगा, पर उसका साथ अचक्षु हो जाएगा व दर-दर की ठोकरें खाएगा। भगवान् ने ‘‘तथास्तु’’ कहा व उसकी एक आंख फूट गई व साथ ही उसके साथी की दोनों फूट गई। बाद में भगवान् ने, दूसरे सन्यासी से वरदान मांगने को कहा, पर यह भी कहा कि पहले वाले वरदान के प्रतिकार स्वरूप वरदान नहीं मांगा जाएगा। वह सन्यासी विज्ञ व सही अर्थ में भक्त था, अतः उसने कहा, ‘‘भगवान्! मैं केवल आपकी इस छवि का निरन्तर दर्शन करना चाहता हूँ।’’ भगवान इस याचना से प्रसन्न हो गए व उनके ‘‘तथास्तु’’ कहते ही संन्यासी को स्वतः दृष्टि मिल गई व ईर्ष्याभाव के कारण प्रथम संन्यासी कुछ भी नहीं पा सका और व्यर्थ में अपनी आंख गंवा बैठा व भगवत्कृपा से सदा-सदा के लिए वंचित हो गया।
ईर्ष्या का प्रादुर्भाव व्यक्ति के, स्वयं के कृतित्व से नहीं, अपितृ दूसरे की उपलब्धि या कृतित्व से होता है इसलिए इसे ‘‘प्रतिक्रिया’’ कहा जा सकता है। आत्म साधना के लिए किए जाने वाले प्रेक्षाध्यान का एक सूत्र है- ‘‘प्रतिक्रियाविरति’’। जो साधक प्रतिक्रिया से विरत हो जाता है या उस दिशा में प्रयास करता है, वह सचमुच अपने कर्मबंधनों से मुक्त होकर स्वतंत्र बन सकता है। जो व्यक्ति प्रतिक्रिया का जीवन जीता है, वह कभी स्वतंत्र नही हो सकता। एक व्यक्ति भोजन कर रहा है। किसी व्यक्ति ने उसे कह दिया, ‘‘कैसे खा रहे हो? खाने की तमीज ही नहीं है।’’ यह सुनते ही, भोजन करने वाला, गुस्से में आ जाता है। बकबक करने लग जाता है और भोजन करना भूलकर अपने को विषाक्त बना लेता है। यह है प्रतिक्रिया। किसी ने दो मीठे शब्द कह दिए, आदमी फूल गया। किसी ने थोड़ी-सी कड़वी बात कह दी, आदमी गुस्से से भर गया। इससे यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि प्रतिकर्ता स्वतंत्र नहीं हो सकता, दूसरे के हाथ का खिलोना बन जाता है। ऐसा जीवन अच्छा नहीं होता। ईर्ष्या से विरत होना जीवन दर्शन का महत्वपूर्ण सूत्र है। हमारे संत-महात्माओं ने सीधी सरल लोकभाषा में पदों की रचना कर इसी बात का संकेत दिया है, जिनमें से कुछ पद इस प्रकार है-
पलटू यह साची कहे, अपने मन का फेर।
तुझे पराई क्या पड़ी, अपनी ओर निवेर।।
तेरे भावे कुछ करो, भलो बुरो संसार।
नारायण तु बैठिके, अपनो भुवन बुहार।।
हर व्यक्ति की आकांक्षा सुखी शांत जीवन जीने की रहती है और उसके लिए वह लोकोक्ति एक शाश्वत संदेश प्रदान करती है। व्यक्ति अपने पुरूषार्थ से आगे बढ़ै व जो मिले, उसमें संतोष करे व पराई उपलब्धियों या व्यवहार से अपने को प्रभावित न होने दे, उसकी अधीनता स्वीकार न करे, यही मोक्ष मार्ग का प्रशस्त द्वार है। आदि शंकराचार्य ने ‘‘भजगोविदंम्’’ स्तोत्र रचना में एक श्लोक की संरचना की है जो इस प्रकार है-
मूढ़ जही हि धनागमतृष्णां, कुरू सद्बुद्धिमनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपातं, वितं तेन विनोदयचित।।
अर्थात् राग न रख, धन के संचय में,
हो वितृष्ण धर सुमति हृदय में।
अर्जित हो जो धन स्वकर्म से,
रह उसमें आनन्द अभय में।।
मैं समझता हूं इस लोकोक्ति को उपरोक्त श्लोक में सही प्रकार से लालित्यपूर्ण भाषा में अभिव्यक्त किया गया है।
लेखक : सोहनराज कोठारी
प्रस्तुतकर्ता : प्रज्ञा प्रदीप मेहता, सूरत।
सही बात
ReplyDeleteशनदार
ReplyDeleteआदरणीय सोहन लालजी ने बहुत ही सुन्दर व मानवीय स्वभाव के बारे में विस्तार से व्याख्या की है ।
ReplyDeleteअपने यहां इस सन्दर्भ में दो सूत्र और हैं---
संयम: खलु जीवनम ।
लाभालाभे सुहे दुखे--------तहा माणाव माणओ ।
प्रतिक्रिया विरती के लिए भी प्रक्रिया है--- प्रारम्भ में आसक्ति को कम करते रहना । फिर द्रष्टा-भाव रखना । सहिष्णुता के लिए दीर्घ श्वास-प्रेक्षा व समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा ।
समवृत्ति श्वास-प्रेक्षा करते समय नमस्कार महामन्त्र का आलम्बन लिया जा सकता है । इससे समताल श्वास-प्रेक्षा स्वतः हो जाती है ।
पूज्य दादाजी ने अनेक उद्धरणों द्वारा विषय पर उपयोगी बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है ।
आपके श्रीचरणों में नमन 👏
ॐ अर्हम्
प्रवक्ता उपासक राजकुमार जैन, दिल्ली-गुरुग्राम ।
Great thoughts.
ReplyDeleteदिल से लिखे हुए शब्द,जिनकी गहराई हम सबको हकीकत से अवगत करवाती है
ReplyDelete👍👍👍
ReplyDeleteSatya-Vachan
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ReplyDeleteWell said 👍🏼
ReplyDeleteशानदार। प्रतिक्रिया विहीन होना
ReplyDeleteईर्ष्या से मुक्त होने का मार्ग है।
शानदार पोस्ट
ReplyDelete👌 👌 👌 👌
ReplyDeleteRespected Nanosa Justice Shri Sohanraj ji Kothari.
ReplyDeleteSantoshi sada sukhi,
Chahe dhan ho ya samaan🙏
बहुत ही सुंदर और सटीक शब्दो से मानवीय स्वभाव की व्याख्या की है।
ReplyDeleteआदरणीय नानोसा के लेख पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। यह एक बहुत ही अच्छी शुरुआत है। 🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteआदरणीय ने अध्यात्म का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteॐ अर्हम
प्रस्तुत लेख निसंदेह आज के युग में मानव की संग्रह प्रवृत्ति और निरंतर, निरुद्देश्य लालसा पर चोट करता है।परंतु विडंबना है कि इस ओर व्यक्ति सब कुछ खो देने के बाद ही विचारशील बनता है।
ReplyDeleteVery well explained in very simple language..
ReplyDeleteOne should try to refrain from negative emotion like jealously and comparison.
एक बात और स्पष्ट है कि क्रोध की भूमिका में ईर्ष्या नही पनपती है किन्तु ईर्ष्या के वशीभूत क्रोध को ईंधन मिल जाता है। ईर्ष्या ज्वालामुखी का गर्भ है तो क्रोध उससे उगलती आग की लपटें हैं।
ReplyDeleteगौतमचंद सेठिया, चेन्नई
बहुत ही सुंदर,ज्ञानवर्धक व शिक्षाप्रद
ReplyDeleteसाधुवाद.
सोहन मेहता, जोधपुर।
प्रस्तुत लेख निसंदेह आज के युग में संग्रह प्रवृत्ति और निरंतर, निरुद्देश्य लालसा पर चोट करता है।परंतु विडंबना है कि व्यक्ति सब कुछ खो देने के बाद ही विचारशील बनता है।
ReplyDeleteअशोक पारख, सिलीगुडी।
Very beautiful and very good contribution by Judge Kothari sahib.
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