जीने की कला - कम खाना, गम खाना, नम जाना
आज से करीब 25 वर्ष पूर्व पापा जी सोहन राज जी ने प्रेक्षा ध्यान, कथा लोक,जैन भारती आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखा करते थे । वे लेख स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के हिसाब से होते थे। किसी एक शब्द पर उसका विवेचन वे करते थे। वह शब्द लोकोक्ति, मुहावरा, कहावत या प्रचलित वाक्य होता था। उस ढाई दशक पूर्व लिखे गए लेखों की प्रासंगिकता आज भी है। उन्हीं लेखों में से एक लेख कम खाना, गम खाना, नम जाना आज आपके सामने प्रस्तुत है यह लेख वर्तमान जीवन में भी इतना ही महत्वपूर्ण ओर उपयोगी है, जितना कि उस समय था। आप इस लेख को पढ़कर स्वयं अपने जीवन में इन बातों को उतारेंगे तो इसलिए को पढ़ने की सार्थकता होगी। - मर्यादा कुमार कोठारी
कम खाना, गम खाना, नम जाना - उपरोक्त तीन शब्द युगलों में किसी अनुभवसिद्ध व्यक्ति ने जीवन की सफलता का सार स्वरूप निचोड़कर रख दिया है, ऐसा प्रतीत होता है। व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन एवं सामुदायिक जीवन में मनुष्य उपरोक्त शब्द युगलों को हृदयंगम कर ले, तो उसका जीवन सहज, सरल एवं सुखी बन सकता है। तीनों शब्द-युगल अक्षरों की दृष्टि से लघु होते हुए भी इनमें, प्रत्येक में गहरा सार भरा है, इसलिए प्रत्येक शब्द युगल पर संक्षेप में विवेचन करना उपयुक्त होगा ताकि प्रत्येक शब्द-युगल की विशिष्टता प्रकट हो सके।
कम खाना - विश्व में सभी प्राणियों की चार मौलिक इच्छाएं होती है, यथा –
1. जीने की कामना,
2. भोजन की कामना,
3. काम की कामना,
4. संघर्ष की कामना।
इन चारों में भोजन की कामना प्रथम व महत्वपूर्ण है क्योंकि हमारे शरीर की सारी क्रियाएं भोजन के द्वारा संचालित होती है। हम जो खाते है, उसका एक रसायन बनता है, जो हमारे शरीर में जीवन की प्राण ऊर्जा बनकर सारे शरीर तंत्र का संचालन करता है। आहार के बिना जीवन नहीं हो सकता, जीवन के बिना ज्ञान, दर्शन और आचार की साधना नहीं हो सकती, एवं उसके बिना बन्धन मुक्ति नहीं हो सकती। अतः मनुष्य की पहली अपेक्षा आहार है और उसे कभी उपेक्षित या गौण नहीं करना चाहिए। तब प्रश्न उठता है कि आहार कैसा हो, क्या हो, कितना हो। इस विषय में एक आचार्य ने एक पद में कहा है कि -
हियाहार, मियाहारा, अप्पहारा य जे नरा।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।।
अर्थात् जो हित, मित और अल्प मात्रा में भोजन करते है, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते, वे स्वयं अपने चिकित्सक है।
भगवान् महावीर ने जैन योग की तप साधना में, निराहार साधना के बाद भोजन प्रयोग के बारे में निर्देश दिया, ‘‘कुछ ऐसा अभ्यास करो, जिसमें यह अनुभव हो कि खाने पर भी पूरा नहीं खाया, ऊनोदरी का सिद्धान्त कम खाने का सिद्धांत है। यही परिमित भोजन है। स्वयं द्वारा स्वयं की चिकित्सा है।’’ जो परिमित भोजन करते है, यानी कम खाते है, कम वस्तुएं खाते हैं, वे बीमार नहीं होते, सदा स्वस्थ रहते है। न केवल शरीरिक बल्कि मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए भी कम खाना आवश्यक है। आचार्य श्री भिक्षु ने ‘‘शील की नव बाड़’’ पद्य रचना में ढाल में अधिक आहार करने के फलस्वरूप शरीर में किस प्रकार की व्याधियां उत्पन्न हो जाती है और साधना में व्यवधान आ जाता है, उसका अत्यन्त सजीव शब्दों में वर्णन किया है। इस निबंध के लघु कलेवर में उसका इतना उल्लेख मात्र करना ही उपयुक्त है। एक वरिष्ठ चिकित्सक का कहना है कि हमको जितनी भूख लगे, उसे हम चार भागों में बांट दे। फिर उसमें दो भाग में भोजन करे, एक भाग पानी के लिए छोड़ दे और एक भाग वायु के लिए छोड़ दे, तो व्यक्ति कभी अस्वस्थ नहीं हो सकता। द्वितीय महायुद्ध के बाद जर्मनी में सर्वेक्षण किया गया, तो निष्कर्ष निकला कि अधिकांश बीमारियां वहां अति भोजन का मात्र एक भाग इसलिए खाता है कि वह शरीर के रोगों को निमंत्रित करे, डॉक्टरों की शरण ले और अस्वस्थ बने। ऐसी स्थिति में कम खाना मनुष्य को स्वस्थ रखने के लिए बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है।
गम खाना - मनुष्य का पूरा जीवन ही संघर्ष है जिसका विश्राम उसकी मृत्यु है। ऐसे संघर्षपूर्ण जीवन में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता जिसे अपने जीवन में प्रिय-अप्रिय, प्रतिकूल-अनुकूल, सुख-दुख, हर्ष-शोक, संयोग-वियोग आदि दोनों प्रकार की परिस्थितिओं का सामना न करना पड़ता हो। ऐसी स्थिति में सुखद प्रसंगों में तो व्यक्ति स्वयं को स्थिर रख सकता है पर दुःखद प्रसंगों में वह अविचल नहीं रह पाता, अपना संतुलन खो बैठता है और कभी-कभी ऐसा दुष्कृत्य कर देता है कि उसका व्यक्तिगत, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन सदा-सदा के लिए उसके लिए संत्रास का कारण बन जाता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे अपने परिवार, समाज व समुदाय के साथ रहना पड़ता है और यह सुनिश्चित है कि कोई दो मनुष्यों के संस्कार, स्वभाव, रूचि, मानसिकता एक जैसे नहीं हो सकते, इसलिए साथ रहने में व्यक्ति को दूसरो की भावना का समादर करते कभी-कभी अपनी भावना पर नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है और उसी स्थिति में दो व्यक्ति सुखी रह सकते है वरना यदि प्रत्येक व्यक्ति या समूह अपनी ही इच्छा को सर्वोपरि मान ले व दूसरे की इच्छा का ध्यान न रखे तो एक क्षण भी इस दुनिया में सुख से जीना दुर्भर हो जाएगा। तत्वार्थ सूत्र का एक महत्वपूर्ण सूत्र है- ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ - परस्पर में एक-दूसरे का सहारा - यह प्रकृति का, जीवन सृष्टि का अटल नियम है, ऐसी स्थिति में जब एक दूसरे का सहारा अनिवार्य स्थिति है, तो एक-दूसरे को सहन करने की अनिवार्यता भी इसके साथ सहज रूप से है, तो एक-दूसरे को सहन करने की अनिवार्यता भी इसके साथ सहज रूप से जुड़ जाती है। इतना ही नहीं जो सहन करना नही जानता, वह स्वयं को बदल नही सकता। सृष्टि का सारा क्रम ही परिवर्तनशील है, देश काल, भावना में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहे है और जो इन परिवर्तनों से सामंजस्य नहीं रख पाता, वह अपनी मूल्यवत्ता खो बैठता है।
‘गम’ शब्द उर्दू भाषा का है जिसका हिंदी अर्थ है शोक, दुःख, अतः जो व्यक्ति गम यानी दुःख को खा लेता है यानी पचा लेता है या सहन कर लेता है, वह कभी दुःख की अनुभूति नहीं कर सकता। जिसने हर परिस्थिति के साथ समझौता कर उसे स्वीकार करने का मंत्र सीख लिया, उसका मन स्थिर बन जाता है, भावनाएं संतुलित हो जाती है, आत्मा निष्कंप बन जाती है उसे किसी प्रकार का दुःख कभी नहीं सता सकता। सहअस्तित्व, सामंजस्य, समन्वय, सौहार्दता इसके सहज परिणाम है जो समाज में परिलक्षित होते है और सहजता, स्थित प्रज्ञता, समभाव ऐसे परिणाम है, जो व्यक्ति के जीवन में समाहित होकर उसे अध्यात्म की दिशा में ले जाते है।
नम जाना - यह एक ऐसा सूत्र है जो व्यक्ति के जीवन की सफलता का अचूक उपाय है। जैन दर्शन में ‘‘विनय’’ को अन्तरंग योग साधना का महत्वपूर्ण साधन माना है। जैन धर्म को कहीं-कहीं विनय-मूलधर्म की भी संज्ञा दी गई है जिसका अर्थ है कि जैन धर्म का मूल ही विनय साधना है। हमारे सभी धर्मों में नमन को महत्व दिया है। नमो शिवायः, नमो वासुदेवायः, नमो भगवतायः, नमो अरहंताणं, सिद्धाणं आदि ये सभी मंत्र नमन भाव से प्रारम्भ होते है। ‘‘नमन’’ वही व्यक्ति कर सकता है जो विनयी हो, जिसकी आत्मा सरल एवं ऋजु बन गई हो और जिसके मन में विचारों या संकल्प विकल्पों का जाल क्षीण हो चुका हो। ‘मन’ नहीं होने की स्थिति का ही दूसरा नाम ‘‘नमन’’ है। मन अपनी प्रवृत्तियों से परे तब हो जाता है, जब कि राग-द्वेष की मात्रा कम हो जाती है। नमन से ही व्यक्ति ‘अमन’ (मन का प्रतिलोप) अर्थात् शांत बन जाता है। जिस व्यक्ति या समाज में अहं भावना के संस्कार जाग्रत हो जाते है, वहां न विनय रह पाता है, न अनुशासन ही। इसका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। हमारी अहंवादी शिक्षा ने जहां हमारे विनय के संस्कारों को समाप्त कर दिया, वहां अनुशासनप्रियता, मर्यादा, मान-सम्मान की भावना को भी सम्पूर्ण रूप से तिरोहित कर दिया। इसके कारण हमारे राष्ट्रीय चरित्र का जो ह्रास हुआ है व निरंतर हो रहा है, उसकी भयानकता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस स्थिति को आचार्यवर श्री तुलसी ने कुछ वर्ष पूर्व ही भांप लिया था और अनुशासन (वि.सं. 2038) के पूर्वार्द्ध में संरचित अनुशासन गीत में अपनी व्यथा को इस प्रकार प्रकट किया था-
‘‘अनुशासन है जटिल पहेली, आज समूचे जग में
व्यक्ति, समाज, राष्ट्र सारे ही, उलझ रहे पग-पग में
है अहं भरा रग-रग में तम, गहराता कैसे सूर्य तले?
जय ज्योतिर्मय चिन्मय दीप जले”
यह सुखद संयोग है कि जैन समाज आज भी अपने विनय युण को पर्याप्त मात्रा में समाहित किए हुए है और संभवतः इसी कारण से भारत के कोने-कोने में, जहां-जहां भी मारवाड़ी समाज ने अपना व्यवसाय प्रारंभ किया या बढ़ाया, अपनी विनय वृत्ति के कारण अपना विशिष्ट स्थान बना रखा है। व्यक्तिगत जीवन में, जिसने विनयचर्चा को अपना लिया, नमन करना जान लिया, वह जीवन में कभी पराभूत नहीं हो सकता। कड़े पत्थर ठोकरों की मार सहते रहते है, पर रजकणें अपनी लाघवता के कारण उड़कर आकाश छू लेती है व सारी धरती को घेर लेती है। आंधी और तुफानों में बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते है, पर कैसा भी तुफान क्यों न आए, वह बगीचे की दूब का कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
महातपस्वी बाहुबली, उग्र तपस्या के उपरांत भी अपने चित्त के कोने में बसे किंचित अहं भाव के कारण, आत्मसिद्धि नहीं कर सके और ज्योंही उनमें अहं का पटाक्षेप हुआ कि वे सर्वज्ञ बन गए। वैदिक, बौद्ध और जैन परम्पराओं में जो शरण मंत्र है यानी ‘मामेकं शरणं व्रजं’, ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ या ‘अहतें शरणं पवज्जामि’ सभी इन मंत्रों में ईश्वर के प्रति शरणागति भाव अभिव्यक्ति है, वह तभी संभव है, जबकि हृदय में विनयभाव जागृत होता है, हम नमन करना सीखते है। अतः व्यक्तिगत स्तर से लगाकर सामाजिक, सामुदायिक, धार्मिक एवं भगवद् प्राप्ति के स्तर तक विनय या नमन भाव का अपना विशिष्ट महत्व है, और इसी में जीवन सफलता का रहस्य छिपा है।
अतः ये तीनों सूत्र कम खाना, गम खाना और नम जाना व्यावहारिक धरातल से लगाकर, अध्यात्मिक धरातल तक सफलता के निश्चित सोपान है व इन स्वल्पशब्द-युगलों के अनन्त शाश्वत अनुभूतियों का सार-संक्षेप भरा है।
"अपने सामर्थ्य से जो अधिक देता है
उसका है सच्चा दान
अपनी आवश्यकता से, कम लेता है
उसका है, सच्चा स्वाभिमान
नर और नारी तो, जगत में सभी है
पर सज्जन की है
केवल यही पहचान।।''
-सोहन राज कोठारी
(तेरापंथ प्रवक्ता, शासन सेवी, सेवानिवृत्त जिला एवं sessions न्यायाधीश)
बहुत खूब
ReplyDeleteThis is Jainism Mool Mantr to improve Health & Wealth
ReplyDeleteप्रेक्षाध्यान मासिक पत्रिका के 'स्थायी स्तम्भ' के रूप में प्रतिमाह प्रकाशित होने वाले धारावाहिक आलेख "स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन" को टाइपराइटर से टंकित करने का अवसर मुझे भी मिला है। प्रतिमाह टंकित होने वाले लेखों में से इस आलेख को टाइप करने हेतु मैं बाबूजी शंकरलाल जी मेहता (संपादक) से मांगकर सबसे पहले लेता था।
ReplyDeleteइस मार्गदर्शक साहित्य संकलन को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित करवाने हेतु निवेदन है।
आदर सहित।
हनुमान मल शर्मा
तीन शब्दों के साथ एक और शब्द 'जम जाना'जोड़ सकते है, जो भी कार्य हाथ में लें उसे पूरी लग्न से पुरा करें यही सार्थक होगा।
ReplyDeleteMukanchandji gandhimehta
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Bahut hi sunder vichar aur sohanrajjisa ka sunder lekh bahut hi upyogi vichardhara zindagi mein utarne ke liye.
ReplyDeleteSampatrajji Burad Ahmadabad.
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ये ही जीवन जीने का रास्ता है लेकिन कोई विरला ही इस पथ पर चल सकता है 🙏🙏🙏
ReplyDeleteshri Ramesh Bansal
Bhiwani
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शासनसेवी,तेरापंथ प्रवक्ता,आदरास्पद जज साहब की लेखनी से मैं सुपरिचित हूँ।कथालोक,जैन भारती में बराबर पढ़ने का अवसर मिलता था।अभी अभी आप द्वारा प्रेषित आलेख कम खाना,ग़म खाना,नम जाना-पढ़ा।सरस,सरल भाषा शैली में बहुत ही सारगर्भित बात लिखी है।आपका प्रयास स्तुत्य है,बधाई।
ReplyDelete-पुखराज सेठिया
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विनय को समझने व समझने का प्रयास किया गया है वह स्तुथ्यं है, आपके लेखन के विकास के प्रति आध्यात्मिक मंगल कामना।🙏
ReplyDeleteबाबुलाल जी चौपड़ा
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भाई साहब मर्यादा कुमार जी कोठारी
ReplyDeleteसादर जय जिनेंद्र
आदरणीय जज साहब श्री सोहन राज जी सा कोठारी का करीब 25 साल पहले लिखा हुआ लेख कम खाना गम खाना नम जाना पढ़ा अगर हर मनुष्य उपरोक्त तीन बातें अपने जीवन में अपना ले तो अपने आप ही काफी समस्याओं का हल हो सकता है पुराने जमाने में लोग उपदेश देते थे तो वे पहले अपने जीवन में प्रयोग में लाते थे तो उसका असर भी होता था लेकिन धीरे धीरे यह परंपरा टूटती जा रही है अब तो सभी पंच ही नहीं सरपंच है अब कोई किसी की नहीं सुनता सभी बैरिस्टर हैं अहंकार हावी है उसका खामियाजा समाज व राष्ट्र को भुगतना पड़ रहा है
आदरणीय स्वर्गीय जज साहब की पुण्यात्मा को शत-शत नमन
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सोहन जी सालेचा, जसोल
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“नमन से ही अमन”
ReplyDeleteकितना मार्मिक सारगर्भित व सुन्दर शब्द है !
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shri दिलीप गोठी
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कम खाना, गम खाना, नम जाना - जीवन सफल बनाने का मंत्र है, जिसकी आपने बहुत अच्छी प्रस्तुति सरल शब्दों में बहुत अच्छा विवेचना किया है। ओम् अर्हम।
ReplyDeleteजीतमल जैन रायपुर
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कम खाना, गम खाना ,नम जाना पढ़ने और सुनने में यह तीनों ही शब्द बहुत छोटे लगते हैं लेकिन हकीकत में संपूर्ण जीवन शैली को उजागर करते हैं तीनों ही शब्दों को समझाने की बहुत सुंदर व्याख्या कोठारी साहब ने अपने शब्दों में की है।शत शत नमन 🙏🙏
ReplyDeleteआप ब्लॉक लिखकर बहुत ही सराहनीय कार्य कर रहे हैं जिससे जन-जन तक यह अमूल्य निधि पहुंच रही है 🙏
Mrs. Suman ji shah
mumbai
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