ग्रामीण अंचल और खेल
समाचार पत्र में समाचारों के अंतर्गत
जानकारी प्राप्त हुई एक ग्रामीण लड़की साइकिल पर अपने पिताजी को बिठाकर
पंद्रह सौ किलोमीटर 5 दिन में पहुंच गई। अब उसकी प्रतिभा के लिए भारतीय
साइकिलिंग संघ ने उसे अपने यहां आमंत्रित किया है,
ऐसे समाचार पहले भी हमने कई बार पढ़े, दौड़ में बुधिया के बारे में या अन्य व्यक्तियों
के बारे में खबरें समय-समय पर अखबारों में छपी। जब लगता है, जो प्रतिभा है छुपती नहीं है, छप जाती है।
प्रतिभाओं का ठेका केवल शहरी लोगों का
ही नहीं है, ग्रामीण इलाके में भी बिना प्रशिक्षण
के, बिना किसी बड़े तामझाम के भी बड़ा काम
करने के लिए अच्छी प्रतिभाएं है। बस सवाल यह है उन्हें तराशना पड़ेगा। मैं
याद करूं जब तीरंदाज लिंबाराम गांव से आए थे और ओलंपिक तक पहुंच गए। ऐसे कई
छोटे-छोटे गांवों में प्रतिभाएं हैं,
लेकिन लगता यह है कि हमारे जो हुकुमरान है,
उन्हें केवल शहरी प्रतिभाओं पर ज्यादा ध्यान होता है और गांव का जो मेहनत का काम करते
है, वहां जिस तरीके की आबोहवा है, उस मेहनत में प्रतिभाएं ज्यादा कार्यकुशल बन सकती है।
आप पिछले सालों की प्रतियोगी
परीक्षाओं की भी लिस्ट उठाकर देख लें, उसमें भी ज्यादातर ग्रामीण परिवेश से आए हुए
लोग सफल हो रहे हैं, क्यों?
जबकि उन्हें मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रखा जाता है, फिर भी वह अपनी मेहनत और लगन से सफलता प्राप्त
कर लेते हैं। ग्रामीण वातावरण एकदम स्वच्छ एवं खुला है। वहां सुविधा कम है लेकिन
लोगों की क्षमता और वहां का खानपान उन्हें वह सुरक्षा देता है कि वो हर हाल में, हर जगह पर, अपने को एडजस्ट कर लेते हैं। बस उन्हें सही दिशा
बताने की जरूरत है।
मैं वर्तमान परिपेक्ष की बात करूं वर्तमान
हालात में शहर से गांव ज्यादा सुरक्षित हैं क्योंकि पहले भी कहा गया है
कि भारतीय अर्थव्यवस्था गावों पर चलती है लेकिन हमने गांवों को
बिल्कुल भुला दिया है। हम शहरी संस्कृति में इतना रम गए कि हमें केवल शहर ही याद रहते हैं, इसलिए हमें पुनः गांव की ओर लौटना होगा।
जहां पर्यावरण की विशुद्धि है ही साथ ही साथ, खान-पान विशुद्ध है। समय जो बदल रहा है उसमें लगता है के गावों की आबोहवा में भी यह जहर घुलने की ओर आगे बढ़ रहा है। हमें उसे रोकना है।
शहर की जो प्रतिभाएं हैं उन्हें गांव की ओर भी ले जाना
है और गांव की जो प्रतिभाएं हैं उन्हें आगे लाना है। उन्हें सही प्रशिक्षण देकर आगे बढ़ने की ओर प्रेरित
करना है।
चक दे इंडिया फिल्म आई थी, उसमें
जो टीम बनी थी महिलाओं की, उस टीम के सदस्य हैं देश के अलग-अलग छोटे-छोटे
शहरों से - गांवों से आए थे और उन्होंने आगे बढ़कर वर्ल्ड कप जीता। अभी भी जब
मैं देखता हूं आईपीएल में या भारतीय क्रिकेट टीम में तो कई सदस्य गांवों - कस्बों
से आजकल टीम में आ रहे हैं; नहीं तो किसी जमाने में मैंने देखा है कि टीम के
अधिकतर खिलाड़ी दिल्ली या मुंबई से ही होते थे। अब हमें गांव से प्रतिभाओं की ओर
को आगे लाना है। यह केवल तभी लाया जा सकता है जब हमारी अफसरों
की लालफीताशाही बंद हो और ग्रामीण प्रतिभाओं को आगे बढ़ने का रास्ता खुले।
जैसा की दंगल फिल्म में आमिर खान ने बताया अपनी बेटियों के लिए उनको एड़ी से
चोटी तक जोर लगाना पड़ा, तब कहीं जाकर वह उनको नेशनल और
इंटरनेशनल कुश्ती में खिला पाए। इतनी मेहनत या इतनी हिम्मत कौन करता है? बड़ा मुश्किल है। जो हमारे वर्तमान में खेल
अधिकारी है - खेल प्राधिकरण के कर्ताधर्ता है या खेल मंत्री आदि है, वे इस बात पर ध्यान दें और गांवों की ओर
आगे बढ़े।
गावों के खेलों को भी बढ़ावा दें, जैसे आज जब मैं कबड्डी का इंटरनेशनल स्तर
पर भारतीय टीम को देखता हूं तो बड़ा ही अच्छा लगता है। यह हमारे एक मूलभूत
भारतीय खेल है। केवल यह अखबार की खबर,
ज्योति जैसी लड़की को दो-चार दिन की बात ना होकर रह जाए। इसके माध्यम से ऐसी
प्रतिभाओं को आगे लाकर राष्ट्र के सामने प्रस्तुत करना है और हमारे देश का नाम
रोशन करना है। जब भी हमें चाहे विश्वकप हो, चाहे ओलंपिक हो, चाहे एशिया कप या चाहे नेशनल कप... सब में ही ग्रामीण अंचल
को साथ में जोड़ने से ही पदक आ सकता है और भारतीय तिरंगा सब जगह फ़हराया सकता है।
मैं 2 साल पहले मेघालय गया था तो वहां
से मुझे बाइचुंग भुटिया का गांव दिखाया गया। बाइचूँग भूटिया आज की तारीख में भारतीय फुटबॉल का आइकन
हैं। ऐसा व्यक्ति गांव से आया हुआ है एक ग्रामीण
परिवेश का व्यक्तित्व, व हमें ऐसे ग्रामीण परिवेश पर नाज है।
हम भारतीय गांवों में बसे हुए हमारे जो भी खेलों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व
हैं उनको आगे लाएं। तभी हम आगे बढ़ सकेंगे। विकास कर सकेंगे, अन्यथा फिर वही ढाक के तीन पात। सबसे
बड़ा दल जाता है और पदक के नाम पर सिर्फ शून्य। इस बदनामी को मिटाना है तो
हमें गांव की ओर जाना पड़ेगा। वहां के अंचल में रह रहे लोगों को तराश के
कोहिनूर बनाना होगा हमारे खेलों के कर्ता-धर्ता आगे आए यही उनसे अपेक्षा है। ग्रामीण जीवन व
वन्य
जनजीवन मे रहने वालों की जिजीविषा हमें सिखाती है की
परिवेश
चाहे कैसा भी हो, वहां आप
अपने
आप को ढाल सकते हैं। हमें उन्हें नई राह दिखा कर, सही दिशा देकर,
देश के खेलों की दशा को सुधारना होगा।
धरती की गहराई में, बीज डाले
कि लहराते फूलों का पाया वरदान
अपने सपनों को, आकाश में फैलाया
की सत्यम शिवम सुंदरम का फल गया अरमान
रचनाकार:
मर्यादा
कुमार कोठारी
(आप युवादृष्टि, तेरापंथ टाइम्स के संपादक व अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय
अध्यक्ष रह चुके हैं)
एकदम सही..
ReplyDeleteThank you swaroop ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteसही कहा आपने भारत की आत्मा गांवों में है। भारत की प्रतिभाएं भी गांवों में है और भारत की कला, संस्कृति भी गांवों ने ही बचा रखी है। शहर तो अधिक और अधिक पाश्चात्य होते चले जा रहे है। और अर्थव्यवस्था तो गांवों के बिना मानो चरमरा ही जाए, गांव के किसान के बिना न किसी का पेट भरे और न कोई GDP बढ़े और यहां तक कि गांवों के बिना इन शहरों के कारखानों को मजदूर भी न मिले। लेकिन सरकारें या पूरा सिस्टम ही कह दे, गांवों की अनदेखी करता है। सरकार छोड़िए जनाब, कोई डॉक्टर या टीचर तक चाहता है कि वो शहर के अस्पताल या स्कूल में लगे, वो भी गांव नहीं जाना चाहता। क्या पता हमारे दिमागों में शहरों की चकाचौंध के प्रति इतना आकर्षण क्यों और कैसे भर दिया गया है जबकि जैसा आपने लिखा गांव का वातावरण शुद्ध है, आबोहवा स्वच्छ है, कम खर्च में खुशहाल रहा जा सकता है, तो आकर्षण तो गांवों के प्रति पैदा करना चाहिए। और यह आकर्षण आप जैसे मार्गदर्शक अपने प्रेरणादायी लेखों, अभिव्यक्तियों के माध्यम से बखूबी कर सकते हैं।
ReplyDeletetrue sanjay ji, nice point of view, Thank you for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.
Deleteशुद्ध खानपखान ,खुली हवा,अपनापन,और प्रमोद भावना,ये सब प्राय शहरों की अपेक्षा गांवों में ज्यादा मिलते हैं,जिससे शरीर बलिष्ठ, अच्छी प्रतिरोध शक्ति,उत्साह वर्धन प्रोत्साहन ,ये सब अच्छे खिलाड़ी बनने के कारक बन जाते हैं।ओम अर्हम्
ReplyDeleteशहरी क्षेत्रों में जीवन अधिक सुविधाजनक होने से भी पृतिभावानो की कमी आई है।सोना जितना आग में तपता तभी निखार आता है।
ReplyDeleteA very good, very important artical. I have often said in my conversation that how many Eisenstein (spelling not sure) are hidden in these illiterate masses we do not know. You are right that attention should be paid to provide full opportunity. But from a Government and a society which is not serious about the bread and primary education, how can we expect much. Yet afforts such as your in this artical should continue rather much vigorously. Continued efforts may bring some results in the future. Well done, kindly keep it up. Thanks. I shall forward this to as many as I can and join you in your this great endeavour. With my best wishes
ReplyDeleteB C Lodha (via whatsapp)
(Ex. V C Jain Vishwa Bharti University)
बहुत सुंदर सोच👍👌 असल में गांव में रहने वाले प्रतिभाशाली लोग बड़ी जगहों पर जाकर बस जाते हैं और गांव उनके छुट्टियां मनाने की जगह हो गया है और कुछ सालों से तो बच्चे बड़े गांव आना भी नहीं चाहते थे लेकिन इस लॉकडाउन ने गांव की अहमियत बढ़ा दी हैं आपके द्वारा लिखे गए लेख प्रतिभाओं को उभारने के बहुत सुंदर माध्यम है 👍👏
ReplyDeleteSuman Shah (via whatsapp)
Mumbai
बहुत खूब तथ्यपूर्ण।।
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