गांधीजी की सही समझ
गांधी व गीता भारत की विश्व को ऐसी दो देन है, जिन पर हर विचारक, हर चिंतक ने अपने - अपने दृष्टिकोण से विश्लेषण किया है. गांधीजी के कट्टर समर्थक, गांधी जी को मानव नहीं वरन् भगवान तुल्य मानते हैं तथा गांधीजी के आलोचक हमारी प्रत्येक समस्या की जड़ गांधीजी में खोज रहे हैं, कहावतें तक बन गई "मजबूरी का दूसरा नाम महात्मा गांधी है"
इन दो अति के मध्य आज के परिप्रेक्ष्य में निरपेक्ष दृष्टिकोण से गांधी जी पर विचार करने की आवश्यकता है। गांधीजी एक महामानव थे लेकिन मानवीय गुण - अवगुण, वेदना - संवेदना, स्वाभिमान - अभिमान ये सब भी गांधीजी मे थे। हम गांधी जी का तटस्थ विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।
गांधी जी की जीवन का जो सबसे अटूट पहलू - शाश्वत पहलू है. वह सत्य एवं अहिंसा के प्रति गांधीजी की आस्था थी। गांधीजी कहते थे सत्य ही ईश्वर है स्वयं की आत्मकथा का नाम भी सत्य के प्रयोग रखा क्योंकि बचपन से लेकर मृत्यु तक गांधीजी वह करते रहे लेकिन गांधीजी का सत्य जड़ नहीं था, उन्होंने लिखा है कि "लिखते समय मैं यह कभी नहीं सोचता कि पहले मैंने क्या कहा था। किसी प्रस्तुत प्रश्न के ऊपर अपने पिछले वक्तव्य पर दृढ़ रहना मेरा लक्ष्य नहीं है। मेरा लक्ष्य है कि किसी प्रस्तुत क्षण में सत्य जिस रूप में मेरे सामने आता है उस पर दृढ़ रहना। परिणाम स्वरूप एक के बाद एक दूसरे सत्य पर बढ़ता गया हूं।"
गांधी जी को जब किसी कारण वर्ष बकरी का दूध लेना पड़ा तब भी गांधी जी ने यह सच्चाई स्वीकारी की दूध लेना प्रतिज्ञा भंग थी एवं यह उनकी कमजोरी थी।
गांधीजी एक बड़े आर्थिक व समाज सुधारक थे। इस बात को जितना उजागर किया जाना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। गांधीजी इस बात को जानते थे कि केवल राजनीतिक आजादी से भारत का भला नहीं होने वाला है, समाज का उत्थान जरूरी है, छुआछूत, स्त्री शिक्षा राष्ट्रभाषा विकास, स्वालंबन, नशा मुक्ति, हिंदू मुस्लिम एकता इत्यादि से ही भारत में पूर्ण स्वराज सब दृष्टि से आ पाएगा।
गांधी जी ने 1932 से 1939 तक के कार्यकाल में अपने समाज सुधार के कार्य में अपनी पूरी शक्ति लगाई। सितंबर 1932 में जब यरवडा में गांधी जी ने हरिजन - दलित उद्धार के लिए कार्य किया था और फलस्वरूप भारत के कोने - कोने में, ऐसे- ऐसे मंदिरों में, जिनमें कभी हरिजनों ने पावं नहीं रखे थे, उनके लिए खोल दिए गए।
गांधीजी के आर्थिक विचार भी तत्कालीन भारतीय परिस्थिति के अनुकूल थे। अंग्रेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया था, अत: गांधी जी ने "स्वदेशी" के माध्यम से देश के कारीगरों को रोजगार उपलब्ध हो यह लक्ष्य रखा, क्योंकि भूखे पेट की स्वतंत्रता नहीं होती है, मात्र रोटी की इच्छा होती है। प्रत्येक ग्राम आत्मनिर्भर इकाई बने तथा उत्पादन की ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जिसमें अधिक से अधिक श्रम का नियोजन हो- रोजगार का सृजन हो ये ही भारत के हित में है। गांधीजी के आर्थिक विचारों को पूर्णतया नकारा नहीं जा सकता, स्वतंत्रता के बाद आवश्यकता थी ऐसी व्यवस्था की जिसमें हमारे श्रम को अधिक से अधिक रोजगार मिले तथा ऐसी तकनीक की जिसमें उत्पादन की गुणवत्ता भी बनी रहे। गांधी जी ने श्रम व पूंजी के समन्वय पर जोर दिया, 1917 - 18 में अहमदाबाद मिल मालिकों एवं मजदूरों के संघर्ष के समय में गुजरात में मजूर- महाजन संघ की स्थापना हुई तथा संघर्ष को पंच फैसले से मानने की परंपरा पड़ी। भारत के श्रम संगठनों ने अहिंसा के स्थान पर हिंसा, तोड़फोड़, हड़ताल का रास्ता अपनाया, जिससे हम देखते हैं कि आज से ३०-४० वर्ष पहले पश्चिम बंगाल, कानपुर, कोटा इत्यादि बड़े-बड़े औद्योगिक केंद्र धीरे-धीरे समाप्त हो गए। भारतीय परिस्थितियों एवं संसाधनों के आधार पर अर्थव्यवस्था को विकसित करने की जरूरत थी और यही गांधी जी का लक्ष्य था।
राजनीतिक गांधी के ऊपर सबसे अधिक लिखा गया एवं सबसे अधिक समझने का प्रयास किया गया। गांधीजी पहले ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने साधन शुद्धि पर बहुत जोर दिया। उन्होंने राजनीति के परंपरागत हिंसा-द्वेष-पर पीड़ा के सिद्धांतों को अहिंसा, सत्य एवं सदभाव में सफलतापूर्वक परिवर्तित करके दिखाया। गांधीजी कभी भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी को व्यक्तिगत दुश्मन नहीं मांगते थे, उनके प्रति व्यवहार में मैत्री एवं स्नेह का गुण रखते थे। चाहे दक्षिण अफ्रीका का संघर्ष, या भारत का स्वाधीनता संग्राम, गांधी जी की प्रभावशालीता इसी में दिखाई देती है कि वह अपने प्रतिद्वंदी के हृदय में उच्चतम गांधीवादी प्रेरणा जागृत कर देते थे, गांधी जी को विजय इसलिए नहीं प्राप्त हुई कि अंग्रेज सरकार उनसे लड़ने की शक्ति नहीं रखती थी बल्कि इसलिए प्राप्त हुई कि अंग्रेज सरकार के अधिकारियों का हृदय उनसे लड़ना ही नहीं चाहता था।
राजनीतिक गांधी दूरदर्शी एवं अप्रतिम संगठन करते थे, उन्होंने भारत के स्वातंत्र्य संग्राम को एक राजनीतिक दिशा ही नहीं दी वरन सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण, जवाहरलाल नेहरू, जेबी कृपलानी, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जैसी राजनीतिक टीम एवं दीनबंधु एंड्रयूज, मिसलेड, जमुनालाल बजाज, घनश्याम दास बिरला, विनोबा भावे इत्यादि व्यक्तियों की एक समाज सुधारक टीम तैयार की । गांधी जी का साधन - शुद्धि पर भार का सबसे बड़ा उदाहरण है कि 1922 में जब पूरे भारत भर में असहयोग आंदोलन अपने पूर्ण उभार पर था, तब उन्होंने हिंसा होने पर उसे स्थगित कर दिया, इसमें गांधी जी को कितना अपयश मिला, कितना उनको सहना पड़ा , लेकिन यह गांधीजी की दूरदर्शिता थी और उनका मानना था कि भारत की जनता अभी भी स्वतंत्रता के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि हिंसा के माध्यम से यदि कोई लक्ष्य भी प्राप्त किया जाएगा तो उसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे और यह हमने कई बार स्वतंत्र भारत की राजनीति क्षेत्र में देखा है।
गांधी जी की राजनीति देखिए जनता में किस तरह जागृति लाएं, स्वाभिमान जगाए, उन्होंने नमक जैसी वस्तु को भी जनता को जगाने का मंत्र बनाया। गांधीजी सदैव घर के किले को मजबूत बना कर ही राजनीतिक लड़ाई लड़ते थे, 1931 में गांधी - इरविन समझौता इस बात को रेखांकित करता है कि सिद्धांत रूप से भारत और ब्रिटेन के बीच बराबरी का दर्जा कायम हो गया था।
गांधी जी की जो सबसे अखरने वाली बात रही यह थी "जिन कठोर मर्यादाओं की कैद में उन्होंने खुद को प्रसन्नता से अपने ऊपर लगा ली उसे वह उनके निकट के लोग भी निभाए यह आशा गांधीजी रखते थे" गांधीजी के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी रही उनके सबसे बड़े पुत्र हरि लाल गांधी, जीवन पर्यन्त गांधी जी के शोक का कारण रहे। ब्रह्मचर्य के संबंध में भी गांधीजी के विचार यह बताते हैं कि गांधीजी भी मानवीय भूलों से परे नहीं थे।
गांधीजी के बारे में एक मिथ्या धारणा है कि वे अधिनायक की तरह कार्य करते थे, ऐसा नहीं है 1925 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व गांधी जी ने कहा था कि "मैं पसंद नहीं करता, न कभी मैंने पसंद किया है कि हर बात के लिए मुझ पर निर्भर रहा जाए। राष्ट्रीय कामकाज को चलाने का यह बिल्कुल निकृष्ट तरीका है। कांग्रेस एक आदमी का तमाशा नहीं बननी चाहिए, जैसा कि उसके बन जाने का खतरा है, चाहे वह एक आदमी कितना ही भला और महान क्यों ना हो"
एक बड़ी मिथ्या धारणा यह भी है कि गांधी जी भारत विभाजन के लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने उसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की, वस्तुत: गांधीजी ने भारत के विभाजन का न केवल विरोध किया, बल्कि जिन्ना को व्यक्तिगत रूप से भी समझाने की कोशिश की। यह इतिहास की नियति थी, कि गांधीजी इस मुद्दे पर कांग्रेस में अकेले पड़ गए, जब गांधी जी से यह पूछा गया कि क्या इस मुद्दे पर आप उपवास करेंगे तो गांधीजी का उत्तर था "if the congress commits suicide to an act of madness, does not mean I should die..." गांधी जी ने 3 जून 1947 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को कहा "I can see only evil in the plan" गांधी जी की तो फरवरी 1948 में पाकिस्तान की यात्रा भी प्रस्तावित थी, वे भी पाकिस्तान, बिना किसी सुरक्षा के जाकर, वहां के लोगों के बीच अहिंसा व शांति की बात करना चाहते थे।
गांधी जी की हिंदू मुस्लिम एकता पर भी स्पष्ट विचार थे, क्योंकि गांधी जी को पता था कि एकता की मजबूत चट्टान पर ही भारतीय शीघ्र अंग्रेजी शासन से स्वाधीनता प्राप्त कर सकेंगे। इसी आधार पर गांधी जी ने खिलाफत आंदोलन का भी समर्थन किया, लेकिन अंग्रेजी शासक इस बात को भांप गए और बड़ी चतुराई से दोनों समुदाय में दूरी बढ़ाते रहे। 1924 में तो गांधीजी ने हिंदू मुस्लिम एकता के लिए 21 दिन का उपवास भी किया था, 1931 की दूसरी गोलमेज परिषद में भी गांधीजी ने पृथक पृथक निर्वाचन क्षेत्र का पुरजोर विरोध किया। जीवन के आखिर तक गांधीजी इस एकता के प्रयत्न में लगे रहे। गांधीजी इस विषय में आंशिक सफल ही हो पाए, लेकिन अंग्रेज सरकार अपने मंसूबों में कामयाब रही। यह मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए गॉडसे के इसी अतिवाद ने गांधीजी का वध करवाया।
गांधी जी के मानवीय स्वरूप पर ही हमें उनका विश्लेषण करना चाहिए, देखिए जब गांधी जी की मृत्यु हुई तब भी वे एक साधारण नागरिक थे, जिनके पास ना धन था, न संपत्ति, न सरकारी उपलब्धि, न सरकारी पद, न वैज्ञानिक सिद्धि, फ़िर भी करोड़ों-करोड़ों लोगों के हृदय पर गांधीजी ने राज किया, करोड़ों-करोड़ों लोगों को गांधीजी में अटूट आस्था थी और वे यह निर्विवाद नेता बने सिर्फ अपने सत्य अहिंसा व नैतिकता के बल पर। महात्मा गांधी सारी मानव जाति की अंतरात्मा के प्रवक्ता थे।
आज आवश्यकता इस बात की है कि गांधी जी को वर्तमान परिस्थितियों में समझा जाए एवं उनके आदर्शों अनुगमन किया जाए ।
Article is primarily based on " The life of Mahatma Gandhi" book written by Louis Fischer
- जिनेन्द्र कुमार कोठारी
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक व रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)
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