आत्मनिर्भर भारत- परिस्थिति की मांग


कोविड-19 की महामारी के कारण से वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के संकेत आए है, प्रत्येक राष्ट्र दूसरे देश पर निर्भर कम से कम होना चाहता है ओर ऐसी परिस्थिति में "आत्मनिर्भर भारत" एक चर्चा का विषय बना है हम इसमें चर्चा करें उससे पूर्व भारत की प्राचीन अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि जान लेना जरूरी है।

ईसा की सोलहवीं शताब्दी तक भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व में सिरमौर थी, भारत की समृद्धि एवं ज्ञान दूसरे देशों के व्यापारियों एवं ज्ञानार्थीओं को भारत की ओर आकर्षित करते थे। भारतीय अर्थव्यवस्था का मजबूत होने का सबसे बड़ा कारण था भारत के गांव- जनपद आत्मनिर्भर थे, अपने जरूरत की वस्तुओं का निर्माण एवं विपणन स्वयं ही करते थे, जनपद का कृषक स्वयं के उपभोग का अनाज रखकर बाकी स्थानीय स्तर पर बेच देता था, ग्राम का महाजन बैंकिंग आवश्यकताओं की पूर्ति करता था, अन्य सेवा प्रदाता (कुंभकार, लोहार, चमड़े का कार्य करने वाले, मिस्त्री आदि) भी स्थानीय स्तर पर उपलब्ध थे, गांधी जी के ग्राम स्वराज की यही कल्पना थी। इस समय भारतवर्ष का व्यापार मध्य एवं पूर्व एशिया के देशों में होता था।

वास्कोडिगामा द्वारा समुद्री व्यापार का मार्ग खुल जाने के बाद यूरोपियन प्रजा विशेषकर पुर्तगाली, डच, फ्रेंच एवं अंग्रेज़ व्यपारी भारत आए एवं धीरे-धीरे विशेषकर अंग्रेजों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने हाथ में लेना प्रारंभ किया, 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने भारतीय राजा और नवाबों से राजस्व वसूली के अधिकार भी ले लिए, अंग्रेज व्यापारी भारतीय पैसों से ही भारत से कच्चा माल खरीदते एवम् ब्रिटेन में तैयार माल भारत में बेचते,  भारतीय मसालों एवं अन्य कृषि सामग्री का भारतीय पैसे से निर्यात कर अंग्रेज व्यापारी मुनाफा कमाते,  इस तरह धीरे-धीरे अंग्रेजों ने भारतीय आर्थिक क्षेत्र के तमाम पासो को खत्म कर दिया ओर इसे पूरी तरह ब्रिटेन पर निर्भर बना दिया, यह भी विडंबना रही कि भारतीय शासक इस बात को नहीं समझ पाए, सबसे पहले १८६८ में दादा भाई नैरोजी ने अपनी पुस्तक "Poverty and Un British rule in India" में रेखांकित किया की अंग्रेजो ने अब तक भारत से २००० लाख करोड़ रुपयों की लूट की है एवं भारतीय अर्थव्यवस्था को खोखला कर दिया है, अंग्रेज़ अधिकारी ये कहते थे कि "हमारी सिस्टम स्पंज की तरह है जो गंगा किनारे से धन को सोखती है तथा टेम्स किनारे (लदंन इस नदी के तट पर बसा है) धन को निचोड़ देती हैं।" आर्थिक रूप से कमजोर समाज,  सामाजिक - नैतिक - शैक्षणिक एवं राजनैतिक रूप से भी कमजोर हो गया।

१९०९ में महात्मा गांधी जी की कालजयी पुस्तक "हिन्द स्वराज" एक क्रांति लेकर आई, इसमें गांधी जी ने अपनी ग्राम स्वराज की अवधारणा को प्रस्तुत किया, गांधीजी ने बाद में "स्वदेशी" को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक हथियार बनाया, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर अंग्रेजों के आर्थिक हितों पर चोट की, खादी व चरखा हमारे आजादी के आंदोलन की प्रतीक बन गए।

देश की स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर सरकारें असमंजस में रही। पूर्ण सरकारी नियंत्रण, साम्यवाद, समाजवाद, मिश्र अर्थव्यवस्था, सरकारी उद्योग, मुक्त अर्थव्यवस्था, सभी का प्रयोग सरकारों ने समय-समय पर किया। 1993 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक व्यवस्था से जुड़ गई तथा मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर हमने कदम बढ़ाए, इससे हमारी सभी व्यवस्थाएं ग्रामोन्मुखी की जगह नगर-महानगर केंद्रित हो गई, उपयोगिता आधारित उत्पादन का स्थान उपभोक्तावाद ने ले लिया, बचत के  स्थान पर आय से अधिक व्यय को प्रोत्साहित किया गया, शैने- शैने भारतीय उत्पादन एवं बाज़ार व्यवस्था बाहरी घटको पर निर्भर हो गई, लघु एवं मध्यम वर्ग के उद्योग किनारे हो गए, बाहरी आयात सस्ता होने से हमारे कुटीर-लघु उद्योग बंद हो गए एवं बाहरी देशों में घटने वाली कोई घटना भी हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती।

कोविड १९ महामारी काल में उद्योग, कच्चे माल के आयात न होने अथवा माल सप्लायर देश द्वारा कीमतों में वृद्धि करने से, चाहते हुए भी व्यापारिक गतिविधियों को गति नहीं मिल पा रही है अतः "भारत पुनः आत्म निर्भर बने" इस बात को पुरजोर महसूस किया गया, ये बात सुनने में,लिखने में, जितनी सुगम सरल एवम् सहज दिखती हैं वास्तव में उतनी ही कठिन एवं दुर्गम है।
आत्मनिर्भरता का मार्ग कठिन है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम सुखद रहेंगे, इसके कुछ बिंदुओं पर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा।

१) आवश्यकता आत्मनिर्भरता की मात्र बात ही नहीं हो, उसे महसूस किया जाए प्रत्येक देशवासी को यह है जरूरी लगे,  देश आर्थिक रूप से स्वालंबी हो यह आवश्यकता की भावना ही हमारा पहला कदम होगा, यहां ये जानना महत्वपूर्ण है कि हमे कुछ वस्तुओं का आयात तो करना ही पड़ेगा लेकिन आयातित वस्तुओं का उपभोग सीमित करना आवश्यक है।

२) संकल्प- पक्का इरादा एवं त्याग आवश्यकता के बाद पूंजी एवं श्रम दोनों ही संकल्पबद्ध हो और त्याग के लिए भी तैयार रहें,  अभी जो कुछ भौतिक सुविधाएं हम भोग रहे हैं,  उसको कुछ समय के लिए स्थगित करना पड़ सकता है,  उदाहरण-यदि हमें पका पकाया भोजन मिलता है तो प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती लेकिन स्वयं भोजन पकाने के लिए पहले श्रम करना पड़ता है, अभी विदेशों से जो सीधा माल आयात होकर आ रहा है उसे देश में ही उत्पन्न करने के लिए लगने वाला समय ही सहन करना होगा। श्रम व पूंजी दोनों को ही सम्मिलित रूप से कार्य करना होगा और जितना इन दोनों में सामंजस्य होगा आत्मनिर्भरता का लक्ष्य उतने ही कम समय में हमें प्राप्त होगा।

३) तकनीक का चयन- भारत को इसी तकनीक अपनाने पर जोर देना होगा जिसमें श्रम का अधिक उपयोग जिससे रोजगार का निर्माण होता रहे।

४) सरकार द्वारा करनीय कार्य- सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्यों की,   उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी-

A) राज्य कर्मचारियों को उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और यह मानना होगा कि यह वर्ग देश के विकास में सर्वाधिक योगदान देने वाला घटक है

B) कम से कम सरकारी नियंत्रण, कम से कम लालफीताशाही, नियमों का सरलीकरण, नियमों का व्यवहारीकरण, रों का ढांचा व्यापार को प्रोत्साहित करने वाला एवं अधिक व्यावहारिक होना जरूरी है।

C) तकनीक का उपयोग सभी सरकारी कार्यों तथा बैंकिंग कार्यों में जहां तक संभव हो वहां तक किया जाए इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सहायता मिलेगी, उद्योग जगत के समय की भी बचत होगी तथा जो हम विदेशी कंपनियों को भारत आने के लिए प्रेरित कर रहे हैं उसमें भी बल मिलेगा। 

D) आयात को हतोत्साहित करने हेतु देश में ही रिसर्च को प्रोत्साहन देना होगा, श्रमिकों की कुशलता बढ़ानी होंगी, सरकार तथा उद्योग दोनों साथ मिलकर यह कार्य करें, बड़े औद्योगिक घराने इसमें मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।

 E) सरकार को श्रम कानून, न्याय व्यवस्था, नीतियों में निरंतरता, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों का रजिस्ट्रेशन, उद्योग हेतु जमीन संपादन इत्यादि कार्यों को प्राथमिकता से करना होगा। राजनीतिक मतभेद भुलाकर देश हित में निर्णय लेने होंगे, अब तक चली आ रही मात्र आलोचना या विरोध की ओछी राजनीति को त्याग कर, सभी दलों को राष्ट्रीय हित में सोचना होगा।

F)  कच्चा माल देश में उपलब्ध है एवं भारत विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी का देश भी है अतः आधारभूत सुविधाएं जैसे सड़क, रेल, बिजली इत्यादि को मजबूत करना होगा, बढ़ाना होगा नवीन तकनीकों को उद्योगों को अपनाना होगा, इससे लागत मूल्य में तो कमी आएगी ही व साथ ही साथ देश में ही वस्तुओं का बाजार मिल जाएगा।
  
G) कृषि में देश की पर्याप्त जनसंख्या रोजगार पा रही है, कृषि को भी उद्योग की तरह तकनीक संपन्न करना होगा, कृषकों को भी कृषि विज्ञान में अपने आप को अपडेट रखना होगा, मानसून पर निर्भरता कम हो इस बात हेतु भी प्रयास करने होंगे, कृषि उत्पादन एवं विपणन हेतु कोल्ड स्टोरेज तथा कृषि मंडियों को व्यवस्थित करना, ये ध्यान रहे कृषि से पैदा की गई आय, देश के उत्पादन एवं उपभोग का चक्र पूरा करेगी।

५) उद्योग जगत की भूमिका-

A) मुनाफा सदैव नए अनुसंधान तथा विकास को प्रोत्साहन देने वाला होता है, लेकिन मुनाफा कालाबाजारी या मुनाफाखोरी में ना बदलें यह ध्यान उद्योग-व्यवसाय जगत को रखनी होगी, श्रम को उसके कार्य की उचित कीमत देनी होगी एवं श्रमिकों को भी अपना पूर्ण परिश्रम करना होगा जिससे हमारे माल की लागत कम हो एवं गुणवत्ता बढे।
  
B) उद्योगपतियों एवं व्यापारियों को भी ईमानदारी से सरकारी कर एवं अन्य शुल्क देने होंगे जिससे सरकार के पास आधारभूत सुविधाओं के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध हो, सरकारों को भी आयात शुल्क, जीएसटी इत्यादि करो को अधिक सुसंगत करना होगा।

C) इंडस्ट्रियल एवं मर्चेंट एसोसिएशन एवं सरकार द्वारा तालमेल से काम किया जाए, एसोसिएशन सरकार को सुझाव दें जो मुझे लगता है ज्यादा व्यवहारिक होंगे और सरकार उन पर गुणवत्ता की दृष्टि से विचार कर उन पर अमल करें तो सरकार एवं उद्योग की भागीदारी भारत को आत्मनिर्भर बनाने में काफी सहयोग करेगी।

६) श्रम संगठनों की भूमिका - अभी तक यह देखा गया है कि श्रम संगठनों ने औद्योगिक विकास में गति देने की बजाय उसे थामने का प्रयास ही अधिक किया है श्रम संगठनों को भी, श्रमिकों को कार्य कुशल बनाने, उन्हें अपने कार्यस्थल के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने जैसे रचनात्मक कार्यों में योगदान देना होगा,  श्रम को उचित मूल्य मिले यह जरूरी है लेकिन श्रमिक हड़ताल-तोड़फोड़ इत्यादि प्रवृत्तियों में न जाए यह देखना श्रम संगठनों का कार्य होगा।

७) जनभागीदारी अर्थव्यवस्था के प्रत्येक घटक अपना-अपना कार्य करेंगे ही लेकिन सबसे अधिक आम जनता को इसमें अपना योगदान देना होगा,  सरकारी नियमों का पालन हो, स्वदेशी वस्तुओं का अधिक से अधिक उपभोग हो तथा जो वस्तुएं अनावश्यक हो और जिनका आयात हमें अभी करना पड़ रहा है जैसे गोल्ड, इलेक्ट्रॉनिक आइटम्स इत्यादि का भी उपभोग हम कम से कम आवश्यकता अनुसार ही करें। पेट्रोल डीजल इत्यादि की भी बचत हमें कच्चे तेल पर होने वाले विदेशी मुद्रा की बचत करेगी,  इससे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग अधिक से अधिक हो तथा सरकार ये सुनिश्चित करे की सार्वजनिक परिवहन अधिक से अधिक सुविधाजनक हो एवं उपलब्धता बढे। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे रिन्यूएबल ऊर्जा के स्रोत हैं,  उनका उपयोग अधिक से अधिक हो जिससे संसाधनों पर अनावश्यक बोझ न पड़े।

यदि देश का प्रत्येक नागरिक चाहे वह नौकरी पेशा हो, व्यवसाई हो,  उद्योगपति हो,  विद्यार्थी हो,  वरिष्ठ नागरिक हो सभी अपना-अपना योगदान, अपनी-अपनी भूमिका निष्ठा पूर्वक करेंगे तो भारत जल्द ही न केवल आत्मनिर्भर होगा,  वरन् अतीत का अपना गौरवान्वित स्थान पुनःप्राप्त कर सकेगा।

- जिनेन्द्र कुमार कोठारी 
(आप समण संस्कृति संकाय, लाड़नुं के पूर्व निदेशक रोटरी क्लब, अंकलेश्वर के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं)

Comments

  1. informative and insightful.

    regards,
    Abhinandan Jain

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    1. thank you abhinandan ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.

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  2. आत्मनिर्भरता के लिए सही दिशानिर्देश की जानकारी मिलती है इस लेख से।
    हमारा खुद पर और अपने देश पर विश्वास अगर मजबूत होगा तो आत्मनिर्भरता के रास्ते सरल बनते जाएंगे ।
    हमारी विदेशी सामग्री की चाहना के बदले हमे देशहित को महत्व देना होगा।
    हम सक्षम है।
    आत्मविश्वास एवम् प्रयास की जरूरत है।
    कनक कोठारी

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    1. This comment has been removed by the author.

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    2. true, it is all about us... how we take it (respond) and how we do our duty / responsibility... thank you kanak bhai ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.

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  3. बहुत बहुत अच्छा

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    1. Thank you ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.

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  4. Replies
    1. Thank you Chanda ji for your valuable time and feedback, stay tuned for such more blogs.

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