जैन एकता कुछ विचारणीय सुझाव




जैन धर्म को मानने वाले सभी संप्रदायों का जैन दर्शन व तत्व समग्र दृष्टि से एक है, सभी जैन धर्मावलंबी शीलचर्या, महाव्रत पालन, मैत्री भावना, पैदल विहार, भिक्षाटन, अपरिग्रह (जैन साधु साध्वी को धन नहीं रखना),  प्रतिक्रमण,  प्रतिलेखन पर्यूषण, सामायिक,  तपस्या, ध्यान, स्वाध्याय इत्यादि का किसी न किसी रूप में पालन करते हैं, इन सब में समानता है लेकिन इन सबके उपरांत भी कभी-कभी मतभेद इतने गहरे एवं उग्र बन जाते हैं कि जैन धर्म के मानने वाले भगवान महावीर के बताए अनेकांत दर्शन को भूल जाते हैं और सत्य व अहिंसा की वृत्तियाँ पीछे छूट जाती हैं। वास्तविकता यह है कि अधिकांश संप्रदाय के भेद एवं विवाद बाहरी हैं, लेकिन धर्म पालन की बाहरी प्रवृत्तियों को  समय के साथ-साथ मुख्य बना दिया और साधना संयम पीछे रह गए, कुछ सुझाव प्रस्तुत हैं जिससे जैन समाज की एकता अपने-अपने आग्रह को छोड़े बिना हो सकती है।

१. दिगंबर एवं श्वेतांबर दोनों ही एक दूसरे से स्वयं को सर्वोच्च समझते हैं, सर्वोच्च मानते हैं,  मात्र वस्त्र त्याग या न्यूनतम वस्त्र पहनने से ही एक दूसरे को हीन ना माना जाए,  देश काल सापेक्षता तथा बौद्धिकता एवं वैराग्य साधना की वृद्धि सबका ध्येय बने,  एक दूसरे में जो बेहतर है,  उसे ग्रहण किया जाए तो श्वेतांबर - दिगंबर दोनों ही जिनशासन की अभिवृद्धि में योगभूत बनेंगे। सर्वोच्चता का मापदंड त्याग-तपस्या, ज्ञान-आराधना हो तो ही समानता का भाव विकसित होगा।

२. जैन धर्म के मंदिर एवं स्थानक - उपासना स्थल बने। मंदिरों पर होने वाला बड़ा खर्च,  प्रतिष्ठा आभूषणों एवं चातुर्मास में होने वाले बड़े खर्च के स्थान पर, सादगी के साथ मंदिर / स्थानक / सभा भवन / उपाश्रय स्थल, ज्ञान की, वैराग्य की प्रवृत्ति बढ़ाने वाले हो तो ही वह सच्चे अर्थ में उपासना स्थल बनेंगे। मंदिरों में मूर्तियां आलंबन का माध्यम बने, मूर्ति पूजन को मानने वाले सादगी से मूर्ति का आलंबन ले, अमुर्तिपुजक मंदिर में भाव पूजा करें, सभी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां आभूषण रहित सादगी पूर्ण हो ध्यान मुद्रा में हो,  कच्चे पानी, कच्चे फूल आदि को प्रश्रय न दिया जाए, दिगंबर - श्वेतांबर दोनों एक ही मंदिर में अपनी-अपनी उपासना पद्धति से साधना करें तो, यह जिन शासन की एकता में बहुत बड़ा कदम होगा। जैन मंदिरों का निर्माण ऐतिहासिकता एवं कला निर्माण की दृष्टि से हो (उदहारण रणकपुर - देलवाड़ा के जैन मंदिर) ,  जिससे जैन धर्म न मानने वाले व्यक्ति भी जैन मंदिर में आए।

३. सादगी एवं शालीनता जैनों के प्रत्येक कार्य में मुख्यतः आचार्यों के, साधु साध्वियों के चातुर्मास,  दीक्षा महोत्सव, मंदिर प्रतिष्ठा जैसे में लक्षित होने चाहिए। आज चातुर्मास व्यवस्थाओं पर करोड़ों-करोड़ों रुपए खर्च होते हैं, दीक्षा महोत्सव एवं मंदिर प्रतिष्ठा आडंबर का, दिखावट का, एक दूसरे से ऊंचा दिखने का मापदंड बन गए हैं, साधु-साध्वी समाज भी इन को प्रोत्साहित करता है, किस का प्रवचन पंडाल कितना बड़ा,  मंदिर की प्रतिष्ठा में कितने व्यक्तियों ने भोजन किया,  कितने लोगों ने दीक्षा ली एक साथ,  जितनी ज्यादा दीक्षाएं - उतनी बड़ी समाज में प्रतिष्ठा,  इन सब बातों से प्रत्येक संप्रदाय,  प्रत्येक पंथ को मानने वाले एक प्रतिस्पर्धा में आ जाते हैं एवं अधिक से अधिक अनावश्यक खर्च को प्रोत्साहन मिलता है। समाज के मुख्य व्यक्ति और मुख्यत: साधु- साध्वी संस्था को इन से ऊपर उठकर सादगी- शालीनता को आगे बढ़ाना होगा तभी जैन समाज में आपस में सौहार्द बढ़ेगा।

४. श्वेतांबर मूर्तिपूजक एवं अमूर्तिपूजक दोनों ही श्वेत अधोवस्त्र एवं उत्तरीय धारण करते हैं,  वाणी संयम के लिए बोलते समय सभी श्वेतांबर मुनि जन मुंह पर मुंहपती या हाथ में रुमाल रखकर बोलते हैं लेकिन मुंह बांधना या ना बांधना यह भी एक बड़ा विवाद का विषय हो जाता है,  मुख्य बात यह है कि बोलते समय हवा के जीवो को कष्ट ना हो,  शालीनता रहे, इसी दृष्टि से मुंह के आगे वस्त्र को रखा जाता है और इससे बोलते समय संयम के साथ अहिंसा की रक्षा होती है, मुंह बांधना या ना बांधना कोई आवश्यक नहीं है यदि सभी श्वेतांबर मुनि जन बोलते समय एक ही आकार का रुमाल या छोटा कपड़ा रखें जिससे बोलते समय मुंह के आगे प्रयोग किया जाए तो सहज ही एकरूपता आ जाएगी और वाणी संयम अहिंसा धर्म का पालन भी हो जाएगा।

५. ये देखा गया है कि श्रावक समाज आपस में अधिक समन्वय व सौहार्द के साथ कार्य करते हैं लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि साधु-साध्वी समाज भी एक दूसरे संप्रदाय के प्रति मैत्री- प्रमोद भाव रखें,  एक दूसरे की साधना व ज्ञान से कुछ ग्रहण करें,  बात कड़वी तो है लेकिन सत्य यह है कि "साधु-साध्वी समाज को स्वयं को धार्मिकता व नैतिकता के प्रचार प्रसार तक ही सीमित रखना चाहिए,  समाज के सामाजिक कार्यों को समाज के व्यक्तियों पर छोड़ देना चाहिए" जहां साधु सामाजिकता में भी प्रवेश कर जाते हैं,  समाज व्यवस्था के हर स्तर पर हस्तक्षेप करते हैं,  तो जैन एकता का प्रश्न अनसुलझा ही रहेगा। साधु संस्था भगवान महावीर के अनेकांत अहिंसा एवं अपरिग्रह का पालन करते हुए समाज में इनका प्रचार प्रसार करें और जब श्रावक इनका पालन करेंगे तो सामाजिक सौहार्द समन्वय और सदभाव अपने आप आ जाएगा।

सार भूत रूप से कहें आग्रहहीन चिंतन,  आडंबर रहित साधना एवं सादगी पूर्ण आयोजन से ही जैन समाज के सभी संप्रदाय अपने अपने धर्म आस्था का पालन करते हुए भी जैन एकता संभव कर सकते हैं,  यह कठिन अवश्य है लेकिन और असंभव नहीं

-जिनेन्द्र कुमार कोठारी

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