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विवेक हीनता (पोपाबांई का राज)

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  स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के अंतर्गत पापा जी सोहन राज जी कोठारी का लोकोक्तियों पर लिखा गया यह लेख विवेक के बारे में हैं। इसमें हमें बताया गया है कि वर्तमान समय में भी विवेकहीनता सामने आ रही है। यह हम सबके लिए एक चिंतनीय विषय है। लेख को पढ़कर स्वयं गौर करें और मनन करें। वर्तमान जीवन में कैसे सार्थकता लाएं ? यह सोचें।   --- मर्यादा कुमार कोठारी   विवेक हीनता ( पोपाबांई का राज ) पोपाबांई का कब , कहां , कैसा राज्य रहा , इसके बारे में ऐतिहासिक या प्रमाणिक जानकारी कहीं नहीं मिलती। इस लोकोक्ति का प्रयोग बहुधा उन प्रसंगों व परिस्थितियों में होता है , जहां विवेक से अपना-पराया , हित-अहित , शुभ-अशुभ , करणीय-अकरणीय आदि का पृथक्करण नहीं किया जाता है और मनमाने तरीके से विवेक के बिना उटपटांग कार्यप्रणाली अपनाली जाती है। इस लोकोक्ति के विषय में ‘ सोमरस ’ रचयिता आचार्यश्री तुलसी ने पुस्तक के परिशिष्ट में संख्या 63 पर एक विस्तृत घटना दी , जो इस प्रकार है- प्राचीन समय में , दो वणिकों ने आपस में गोलमिर्च (काली मिर्च) का व्यापार किया। उस समय तोल-माप के यंत्रों का आविष्कार...

स्वावलंबन

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  स्वल्प शब्दों में समग्र दर्शन के   अंतर्गत   कहावतों पर पापा   सोहन राज जी कोठारी द्वारा लिखे गए लेख द्वारा बताया गया कि स्वावलंबन व श्रम कितना जरूरी है। हम वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो इस कोरोना काल ने स्वावलंबन पर सचेत कर दिया।   वही सुखी है जो स्वाबलंबी है , अन्यथा कष्ट उठाने पड़ेंगे । इस लोकोक्ति पर उनका लिखा गया यह लेख वर्तमान में भी हमें प्रेरणा दे रहा है । -- मर्यादा कुमार कोठारी बैठक तपे जद सूत कते इस लोकोक्ति को साधारण शब्दों में भी जीवन की सफलता व श्रम का एक महत्वपूर्ण संकेत छिपा है। यह बात सही है कि पुराने जमाने में जब देश भर में गांव स्वावलंबी थे तब कपड़े की बुनाई का सारा कार्य छोटी-छोटी इकाईयों के माध्यम से गांव में ही होता था। गांव-गांव में अनेक घरों पर कार्मिक चरखा कात कर रूई से सूत के डोर बनाते , जिससे अन्य कार्मिक अपने घरों में ताना-बाना के पट लगाकर बुनाई करते , कपड़ा तैयार करते। उससे गांव की आवश्यकता पूरी हो जाती। विशिष्ट कलाविद कार्मिक इसी प्रकार रेशम व ऊन कातकर रेशमी व ऊनी कपड़ों की बुनाई करते , उस पर अपनी कलात्मकता का प्रयोग करते। जिससे ...

अधिकार : दायित्व और कर्तव्यों

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  आज के दौर में अधिकारों की आपाधापी चल रही है। पता नहीं हर व्यक्ति यह चाहता है कि यह करना मेरा ही अधिकार है। लेकिन दायित्व और कर्तव्यों के प्रति कोई उसका लेना-देना नहीं लगता। मानसिकता यह हो गई हमारे अधिकार क्या है यह जानने से पहले हमें बताया जाए कि दायित्व और कर्तव्य क्या है पिछले दिनों यूट्यूब पर कई वीडियो देखने में आए। इनमें देखा गया दुर्घटना घटी तब लोग वीडियो बनाने में मशगूल है न कि जान बचाने में। यह सब क्या हो रहा है कहां गई हमारी मानवीय संवेदना यह हमारा कर्तव्य क्या केवल मात्र घटना को किस तरीके से प्रदर्शित करें यही रह गया क्या हमारी संवेदना तो लगता है खत्म हो गई। संवेदना के साथ-साथ लगता है करुणा दया भाव में भी बेहद कमी आ रही है। प्रश्न यह है ऐसा क्यों हो रहा है सोशल मीडिया का जमाना होने कारण के लगता है , हर व्यक्ति घटना को अपने नजरिए से देखकर सबसे पहले परोसना या बताना या प्रचारित करना चाहता है। जबकि उसका दायित्व है वह मानवाधिकार के तहत कार्य करें , नागरिक होने कर्त्तव्य निभाए। पुलिस को अधिकार है कानून व्यवस्था बनाए रखने का। पर वे भी डंडे बरसा कर क्या बताना चाहते है य...